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જૈન યુગ
એપ્રિલ ૧૯૫૯
कारणभूत होंगे वहाँ तक उतने-जितने अंश में तुम्हें भी दुःख भोगना ही पड़ेगा। भगवान् महावीर के इस अनुपम संदेश को एक पाश्चात्य तत्त्ववेत्ता ने इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया है-So long thou shalt not refrain thyself from causing pains and troubles to thy fellow-creatures, thou needst not dream to be emancipated from the appalling dangers of the same. __ अर्थात्-तू जब तक दूसरों को दुःख देना चाहता है तब तक दुःख मुक्त होने की आशा में सुख के स्वप्न देखना निरर्थक है। उनका अटल आत्मविश्वास था कि अपने सुख और दुःख का कारण स्वयं आत्मा ही है । वही अपना मित्र-शत्रु है। वही अपना स्वर्ग-नरक है। जन्ममरण का हेतु भी वही है । बन्ध-मोक्ष का कारण भी वही है । इसलिये अन्य किसी को दोष देना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं।
हिंसा, मैथुन, परिग्रहादि में आसक्त होने से आत्मा का महापतन है और अहिंसा, संयम, तप आदि से उसका महा उत्थान है। और यही उत्कृष्ट धर्म है । कहा है कि:
धम्मो मंगलमुक्किटं, अहिंसा संजमो तवो।
देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥ उपयुक्त अहिंसा संयम और तप रूप उत्कृष्ट धर्माराधन से मानव देवाधिदेव बन सकता है। रंक से राव तथा प्राणी-मात्र का पूजनीय बन सकता है। इसलिये जाति
और कुलादि के अभिमान में किसी भी प्राणी के प्रति ग्लानि तथा घृणा करना अनुचित है। प्रत्येक प्राणी गुणविशेषता से शिष्टपदारूढ़ हो सकता है। प्रत्येक सच्चरित्र आत्मा के लिये धर्म और मुक्ति के द्वार खुले हैं । अंधश्रद्धा के अनुसंधान में मुक्ति नहीं है। मुक्ति है तत्त्व-चिंतन और परिशीलन में।
हिताहित, सत्यासत्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, कृत्याकृत्य और धर्माधर्म इत्यादि सब का विवेक-पूर्वक निर्णय करो। कहा है कि:
निकषच्छेदतापेभ्यः सुवर्णमिव पण्डितैः ।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् ॥१॥ अर्थात् कंचन की परीक्षा करने के लिये कसौटी, छेद और तपन करना बहुत ही जरूरी है इसी तरह हे भिक्षुओ! तुम भी मेरे वचन को मात्र मेरे भक्तिवश नहीं, परन्तु परीक्षा करके मानो। प्रमाण, नय, निक्षेप
और लक्षण ये तत्त्व-परीक्षा के अमूल्य साधन है। इनका उपयोग यथार्थ रीति से करने के लिये मानव-मात्र को प्रज्ञा और मेधा का विकास करना बहुत ही ज़रूरी है। क्योंकि मानव-मेधावी और प्रज्ञा-प्रौढ़ है। पशुओं की भांति प्रज्ञामूढ नहीं है। तथा सब प्राणियों से मानव को विशेष प्रकार की नैसर्गिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। इस प्रज्ञा तथा मेधा के विकास-द्वार को खोलकर हित साधो, नहीं तो पशु जन्म से मनुष्य जन्म की कोई विशेष महत्ता नहीं है। "बाबा वाक्यं प्रमाणम्" मानने की मूढता में मानवजन्म की कोई सार्थकता नहीं । वस्तु को सम्यक् प्रकार से समझकर हम संसार के घोरातिघोर दुःख--जैसे जन्म, मरण, शोक, संताप, संयोग, वियोग, आधि, व्याधि आदि का अन्त लाकर मुक्ति के शाश्वत सुखों को प्राप्त कर सकेंगे। मुक्ति ही हमारे जन्म-जन्मांतरों की जीवन-यात्रा का अंतिम विश्रामधाम है। किसी देश, राष्ट्र और जगत को जीतकर वश में करनेवाला सच्चा विजेता नहीं, किन्तु जिसने अपनी आत्मा को जीता है वही सच्चा विजेता है । प्रभु महावीर ने मुक्ति के संदेश को ज़ोर-शोर से प्रजा को सुनाया जिसके फल-स्वरूप प्रजा के जीवन में बड़ी ही जागृति आ गई। तथा धर्म की वास्तविक महत्ता का दिग्दर्शन कराया। उसी के समर्थन में कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ टागोर ने सुन्दर शब्दों में कहा है कि Mahāvira proclaimed in India the message of salvation that religion is a reality and not a mere Social Convention, that salvation comes from taking refuge in that true religion....
अर्थात् भगवान् महावीर ने डिंडिम् नाद से उद्घोषित किया था कि धर्म अनादिनिधन तथा स्वतःसिद्ध है। वह मानव कल्पना का ढकोसला नहीं है। इन्द्रिय दमन और संयम के यथार्थ पालन में वास्तविक मुक्ति उपलब्ध हो सकती है। मात्र बाह्याडम्बरों से कभी भी मुक्ति सिद्ध नहीं होती। आत्मा का अन्तरावलोकन और अन्तर शुद्धि मुक्ति के सरल हेतु हैं। इसलिये दैहिक भ्रांति में मानव का मानव के प्रति घृणा-भाव होना भूल है। इस अमूल्य उपदेशामृत का प्रभाव आर्यावर्त की प्रजा पर इतना सुन्दर पड़ा कि धार्मिक विधान के व्यास-पीठ पर पुनः क्षत्रिय अधिष्ठित हो गये तथा प्रजा उनकी आज्ञापालन करने लगी। इस तरह से भगवान् महावीर का उत्क्रांतिवाद बड़ा प्रशंसनीय तथा आदरणीय बना। इसी प्रकार उनका
जात ॥१॥
उपदेशाक विधान के