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જેન યુગ
એપ્રિલ ૧૯૫૯
करे यह तो स्वाभाविक है तथा भोग सामग्री के अभाव में वैराग्य के वातावरण का असर अनेकों पर संभव है किन्तु राजकुल की ऋद्धि और ऐश्वर्य के सागर में से बाहिर कूदकर त्याग भूमि पर आने वाले तो कोई अलौकिक व्यक्ति ही नजर आते हैं। • जो उन्होंने उपसर्ग तथा परिषह सदन किये हैं उनकी कथनी करते हुए यह कायर हृदय कांपता है। धन्य है उस महावीर को कि जिस के हृदय में मित्रों के श्रेय से भी शत्रुओं के श्रेय का स्थान प्रथम है। उस महाभाग की क्या बात करें। गोपालक के, चण्डकौशिक के, शूलपाणि के, मंखलीपुत्र के और संगमादि के अनेक घोगतिघोर उपसर्गों में, मेरु की तरह धीर और सागर की तरह गंभीर बनकर भयंकर अटवियों में पर्वत की कन्दराओं में गर्जते हुए सिंह, चीते, भालू आदि भयंकर प्राणियों के बीच में, वर्षा ऋतु की घन-घोर घटाच्छादित अमावस्या की घोर रात्रि में, चमकती हुई विद्युत के उद्योत में, फाँ- करते हुए फणिधर-मणिधर, आदि के बीच में और श्मशान भूमि पर जलते हुए मृतकलेवरों को भक्षण करनेवाले भूत-प्रेत योनि के यक्ष और राक्षसों के बीच में ज्ञान, ध्यान की अस्खलित-धारा में आरूढ होकर पवित्र भावनाओं द्वारा भवाटवी के भयंकर ताप से पीड़ित प्राणियों को अपनी प्रशान्त मुद्रा का प्रशमरसरूपी सुधारस पिलाकर शांति पहुँचा रहा था। उस महान् अवधूत योगी के चरणारविंद में शिरसा बंदन के सिवाय और क्या कहूँ ?
कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज उस कारुण्य हृदय का चित्र चित्रण करते हुए कहते हैं कि :
कृतापराधेऽपि जने कृपामंथरतारयोः । ईषद्बाष्पार्द्रयोर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥ १॥
छः महीनों तक घोरातिघोर प्राणान्त कष्ट देनेवाले संगम नामक दानव के श्रेय की चिंता में अश्रुधारा बहानेवाले हे योगी ! तेरे दयारूप महासागर का माप कैसे दर्शाऊँ ? तेरी अकल कला के सामने मेरी काव्यकला क्या काम आ सकती है ? कहने का आशय यह है कि जितना भी इस महापुरुष के जीवन सम्बन्धी कहा जाय उतना ही थोड़ा है। शास्त्र में कहा है कि वे एक क्षमा में ही वीर न थे किन्तु दानवीर, दयावीर, शीलवीर, त्यागवीर, तपवीर, धर्मवीर, कर्मवीर और ज्ञानवीर आदि सर्व गुणों में वीर शिरोमणि होने से उनका वर्धमान नाम गौण होकर महावीर के नाम से प्रख्यात हुए। यानी जन्म नाम तो उनका वर्धमान ही
था किन्तु वीरता के क्षेत्र में अतुल अद्वितीय तथा अनुपम होने से गुणाश्रित नाम महावीर पड़ा।
जब वे अपनी आत्मा को परिशुद्ध करके ईश्वरीय महाशक्तियों का आविर्भाव करके कैवल्य पद पर आरूढ़ हुए तब पहले-पहल वर्णाश्रम व्यवस्था के लिये अर्थात् क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रों को अपने कर्तव्य का भान कराने के लिये समवसरण में विराजमान होकर अपना सत्य धर्म सन्देश प्रकट किया था। समवसरण उस काल के ऐसे धर्म सन्देश प्रकट किया था। विराट सभा-मंडप का पारिभाषिक नाम है जिसमें यह विश्व-विभूति विराजमान होकर अशांत विश्व को शांति का उपदेश देती थी।
शास्त्रों में समवसरण का वर्णन इस प्रकार है :मानस्तंभाः सरांसि प्रविमलजलसत्खातिका पुष्पवाटी । प्राकारो नाट्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्ध्वजाद्याः॥ शालः कल्पद्रुमाणामुपरि वृतिवनं स्तूपहावली च ।
प्राकारः स्फाटिकोऽन्त नृसुरमुनिसभा पीठिकाग्रे स्वयंभूः ॥ ___ उस समय मानव समाज की बागडोर ब्राह्मणों के हाथ में थी इसलिये श्री महावीर प्रभु ने सर्व प्रथम अपने तप, तेज और ज्ञान के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग के महारथी इन्द्रभूति-गौतम तथा सुधर्म आदि ४४०० ब्राह्मणों का हृदय पलटा किया। पशु-बलिदान की मनोवृत्ति से निवृत्त कर स्व-इन्द्रिय-दमन तथा विश्व के प्राणीमात्र से मैत्री, कारुण्यादि भावना का गुरु मंत्र पढाकर अनासक्ति रूप दीक्षा मार्ग में अधिष्ठित किये। उनके इस अमूल्य उपदेश का मौलिक रहस्य इस प्रकार था कि :
सव्वे पाणा पियाउआ दुक्ख पडिकूला, अप्पिय वहा पिय जिविणो जीविउ कामा सव्वेसि जीवियं पियं (तम्हा)
___"णातिवाएज्जे किंचणं" सारांश यह है कि प्राणी मात्र को प्राण प्रिय हैं, जीवन प्रिय है, मरण और दुःख अप्रिय हैं। इसलिये किसी को दुःख मत दो अर्थात् किसी के जीवन के अधिकारों पर प्रत्याघात न करो। सब सुखपूर्वक जिओ और सब को जीने दो क्योंकि विश्वरचना का नैसर्गिक विधान ही ऐसा है कि बीजानुसार ही फलोत्पत्ति होती है। यानी आम की गुठली से आम तथा नीम के बीज (निबोड़ी) से नीम की उत्पत्ति होती है इसी तरह दुःख से दुःख और सुख से सुख प्राप्त होता है। अतः जहाँ तक तुम दूसरे प्राणियों के लिये जितने अंश में दुःख के