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જૈન યુગ
काया से किसी भी प्राणी के अधिकार पर त्राप न मारना, किसी को अहितकारी वचन न कहना, बिना आज्ञा के किसी की तुम जैसी चीज को भी न लेना कि पर्य के बल से सब इन्द्रियों का दमन करना, किसी वस्तु पर मूर्च्छा न रखना तथा संग्रह न करना ।
दूसरे देशविरति में उप का सर्वथा पालन करने का सामर्थ्य न होने से उदासीनतापूर्वक जिसमे प्रमाण में हो सके उतने प्रमाण में निरन्तर पालन करने की चेष्टा करना ।
प्रथम सामायिक ( सर्वविरति ) के पालक श्रमण, अणगार, यति, निर्व्रन्थ अथवा मुनि कहलाते हैं। और मर्यादित पालनेवाले श्रमणोपासक, आद्ध, आयक, और गृहस्थ कहलाते हैं। दोनों में आचार-भेद होते हुए भी विचार-भेद कदापि न था। दोनों के साध्य की पराकाष्ठा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह में है । इन्हीं को क्रमशः महाव्रत और अणुव्रत भी कहते हैं ।
इस विश्वविभूति ने जगत के प्राणियों को जिस महान् पवित्र सिद्धांत का उपदेश दिया था उसका आचरण उनके रोम रोम में था तथा उसमें उनकी पूर्णतया आत्मरमगता थी । अर्थात् जो कुछ वह जगत के प्राणियों को आचरण करने के लिये उपदेश देते थे उसका वे स्वयं भी पालन करते थे।
आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व आर्यावर्त का यह हाल था कि धर्म की यथार्थ भावना नष्ट हो चुकी थी । वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था स्खलना पा चुकी थी और मानव संसार में सत्यता की प्रधानता नष्ट होकर उसका स्थान स्वार्थता ने लिया था कि जिसके वश में होकर सभ्य और शिक्षित जाति भी अमानुषिक कर्तव्यों को करने के लिये कटिबद्ध हो गई थी। प्रजा को धर्मान्धता के तंत्र में फंसाने के लिये उनके मेथा और प्रश पर प्रव अत्याचार किया जाता था और सृष्टि के अहिंसात्मक अकाट्य नियमों का उलंपन करने में भी निर्भयता को स्थान दिया जाता था । और महारुद्राणी रूप चार अंगुल प्रमाण रसनेन्द्रिय की लोलुपता पूर्ति में संख्याबद्ध निरपराधी और जगत के महान उपयोगी और उपकारी प्राणियों के रक्त के खप्पर खूनी खंजरों द्वारा भरे जाते थे। धर्म के सिद्धान्तों को तोड़कर ऐसे अन्धविश्वास (Blind faith) के "नियोगपर्वनुयोगान सुनेच" जैसे सूत्र निर्धार किये जाते थे। ऐसे कटोकटी के समय में एक विश्वोद्धारक विभूति की प्रतीक्षा बड़े जोर-शोर से हो रही थी। यदि विधि की महासत्ता ने इस विभूति की भेंट न की
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होती तो न मालूम हम अवनति के रसातल पर पहुँचकर महाप्रलय के ग्रास बन जाते। किन्तु भारत का भाग्य बड़ा ही प्रबल था कि एक अनुपम महान् विभूति प्राप्त हो गई तथा इक्ष्वाकु वंश जैसे वैभव, ऐश्वर्य और समृद्धि सम्पन्न राजकुल के राजकुमार होते हुए भी उस ऋद्धि, सिद्धि और सम्पत्ति को तृग समान गिनते हुए तिलांजलि देकर सकल संसार के श्रेय हेतु प्रथम सामायिक के पंच महानतो की भीषण प्रतिज्ञा रूप त्याग-भूमि पर क्षमा ग लेकर खड़े हो गये।
भारत के महान् धारा-शास्त्री सर अलाडी कृष्णस्वामी अय्यर ने कहा था कि मैं धारा- शास्त्र का अभ्यासी होने से धार्मिक तत्त्वज्ञान में विशेष अध्ययन का लाभ नहीं उठा सका। परंतु तार्किक ढंग से कड़ना पड़ता है कि मृग और गाय आदि प्राणी जो तृणभक्षण से अपना जीवन व्यतीत करते हैं वे यदि मांस भक्षण के विमुख बनें तो उसमें विशेषता ही क्या है ? तत्त्व तो वहाँ है कि सिंह का बच्चा मांस का विरोध करे। यानी उनके कहने का अभिप्राय यह है कि पन, कनक, ऋद्धि सिद्धि और ऐश्वर्य के झूले में मुडा हुआ और सूनी संस्कृति से भरे हुए क्षत्रिय कुल के वातावरण में चमकती हुई तलवार के तेज में तल्लीन होता हुआ बालक कुल परम्परा की कुलदेवी समान खूनी खंजर के विरुद्ध महान् आन्दोलन करने के लिये सारी ऋद्धि सिद्धि और सम्पत्ति को मिट्टी के समान मानकर और भोग को रोग-तुल्य समझकर पुणा करता हुआ योग की भूमिका में खूनी वातावरण को शांतिमय बनाने के लिये वन खंड और पर्वतों की कन्दराओं में निस्पृही बनकर सारा जीवन व्यतीत करे। मात्र दिनों तक ही नहीं, किन्तु महीनों एवं वर्षों तक भूपति भूलपति बनकर भटकता फिरे बारह वर्ष की घोर संयम क्षत्रा में अंगुलियों पर गिने जानेवाले नाम मात्र के दिनों में पारने से सूखे टुकडों से करे और सारा काल अहिंसा के आदर्श सिद्धांतों को पालन करने में निमग्न रहे संयम की सर्वोत्कृष्ट साधना करने में तीव्रातितीज तप की ज्वालाओं से अपनी आत्मा को कंचन समान निर्दोष बनाने में तल्लीन रहे। उनकी ये घोर तपस्या, संयम आदि अमूल्य जीवन यात्रा के परदे में बड़ा भारी रहस्य था कि जिसमें मात्र मानव समाज का ही नहीं, परन्तु प्राणी मात्र के परमश्रेय का लक्ष्य था ।
मुझे तो यह ताकि अनुमान बड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है । दया के परम्परागत संस्कार बाले कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति दया का पालन और उसकी पुष्टि के लिये बातें