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________________ श्रमण भगवान् श्रीमहावीर* श्री ऋपभदास जैन जन्म कल्याणक महोत्सव केवल भारतवर्ष के लिये ही नहीं; मानव समाज के लिये ही नहीं; परन्तु अखिल विश्व के प्राणी मात्र के लिये गौरवान्वित, परम कल्याणकारी, मांगलिक एवं पवित्र है। लगभग २५०० वर्ष पूर्व एक ऐसी महान विभूति का जन्म हुआ था कि जिसने विचार-वाणी और वर्तन से विश्व के प्राणी-मात्र के कल्याण के लिये ही अपनी अमूल्य जीवन-यात्रा सफल बनाई थी। वैसे तो कथनी और करनी में आकाश-पाताल का अन्तर है और प्रत्येक युग में कथनी के उपासक करोड़ों की संख्या में उपलब्ध होते हैं, परंतु करनी के घर तक पहुँचनेवाला कोई विरला ही व्यक्ति युग-युगांतरों में पाया जाता है। यही कारण है कि इस वसुन्धरा पर हरेक शताब्दी में संख्या-बद्ध मानव कीटों की उत्पत्ति और लय होते रहते हैं। किन्तु इतिहास की विराट भूमि में उनके नामोनिशान तक नहीं पाये जाते। __इसलिये हजारों वर्ष पूर्व अस्तित्व में होनेवाली एक आदर्श विभूति को आज हमें अपने जीवन के अवलम्बन के लिये, अभ्युदय के लिये और अभ्युत्थान के लिये याद करना अनिवार्य है। हमारे आज के समारोह और महोत्सव के चरित्र नायक, स्वनामधन्य, सर्व-सत्वक्षेमकर, सिद्धार्थ महीपति के कुमार श्री वर्धमान महावीर हैं, जो वास्तव में ही प्राणी-मात्र के लिये पूजनीय और परमोपकारी महापुरुष थे। उनके शांतिमय साम्राज्य को अक्षुण्ण धाराप्रवाही बनानेवाले पारमार्थिक सिद्धांत को अमल में रखना कोई साधारण बात नहीं थी, इसलिये स्वार्थ-परायण प्रजा उनके सिद्धान्तों का परिपूर्ण पालन करने में जैसे-जैसे शिथिल बनती गई वैसे वैसे- उन महान् सिद्धान्तोपासकों की संख्या करोड़ों से कम होती हुई लाखों की सीमा तक पहुँच गई। और बहुमति लघुमति की दृष्टि से वह एक संप्रदाय के नाम से संबोधित होने लगी। दर-असल देखा जाय तो उनके सिद्धान्त सांप्रदायिक नहीं थे परन्तु सर्वश्रेय के लिये सार्वभौमिक थे। भले ही लोग आज उन्हें एक धार्मिक संप्रदाय के प्रवर्तक माने परन्तु इतिहास और विज्ञान तो आज भी उनको विश्वकल्याण-कारक-विश्व गुरु के स्थान पर अधिष्ठित रखते हैं। क्योंकि चाहे आज या कल जब कभी भी संसार सुख-शांति के समीप पहुँचना चाहेगा तब उसे उन्हीं के पवित्र सिद्धान्तों का हार्दिक स्वागत करना पड़ेगा। तथा दूसरे जितने भी प्रयत्न हैं वे सारे निष्फल और निरर्थक बनेंगे। भले ही उसमें हमें किंपाक वृक्ष के विष-फल समान क्षणिक शांति का अनुभव होता हो किंतु वह केवल मृगतृष्णा है। और बिच्छू को द्वार बाहर करने के प्रयत्न में भयंकर सर्प का प्रवेश कराना है। आज आधुनिक जगत के महान् विचारक लोग महात्मा गान्धी, डॉ. टागोर और बर्नार्डशो आदि को इसी निर्णय पर आना पड़ा है और कहना पड़ा है कि, सत्ता का नाश सत्ता से हो जाता है अर्थात् सत्ता से शांति नहीं परन्तु समता से शांति मिलती है। समता का अर्थ है-वासनाओं से विरक्त होना, कषायों से विमुक्त होना और विषयों से विमुख होना। इसी समता को प्रभु महावीर ने अपनी परिभाषा में सामायिक कहा है। तथा उद्घोषणा पूर्वक उन्होंने बतला दिया था कि सामायिक से ही सर्वत्र सुख और शांति शाश्वत रूप से निर्माण हो सकती है । अपने आज के राष्ट्र-सूत्रधारों को भी कहना पड़ा है कि जितने जितने प्रमाण में तृष्णा कम उतने उतने प्रमाण में विशेष सुख है। परन्तु प्रभु का "संजोगमूला जीवेण पत्ता दुक्ख-परंपरा" यह संदेश तो विश्व में उन दिनों में भी पहुँच गया था आशय यह है कि-"जे जे अंशे निरुपाधिपणुं ते ते अंशे धर्म।" इसलिये मूर्छा (परिग्रह) में सुख नहीं है परन्तु अनासक्ति में आसक्ति मानने में आनन्द है। और योग्यता की अधिकार भूमि पर उसी सामायिक के दो विभाग किये थे। एक है सर्वविरति अर्थात् सम्पूर्ण; दूसरा है देशविरति अर्थात् अपूर्ण (मर्यादित)। सर्वविरति का अर्थ है कि मन, वचन, और * मद्रास में मनाए गए श्री महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव प्रसंग के प्रवचन में से।
SR No.536283
Book TitleJain Yug 1959
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1959
Total Pages524
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size34 MB
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