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राजस्थान में प्राप्त जीवन्त स्वामी की एक मूर्ति
श्री अगरचन्द नाहटा
जैन समाज ने कला की वृद्धि एवं संरक्षण में बहुत बडोदा के डा. उमाकांत शाह ने जैन न होते हुए भी बड़ा योग दिया है। भारतवर्ष के कोने कोने में जैन जैन मूर्ति कला का अध्ययन जिस लगन और श्रम से किया मंदिर व मूर्ति, चित्र एवं हस्तलिखित प्रतियां बिखरी पड़ी है वह बहुत ही सराहनीय है। उनका वह विस्तृत ग्रंथ है, उनसे इस सत्य की सर्वाधिक पुष्टि होती है। प्राचीन अमी तक प्रकाशित नहीं हुआ पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैन मंदिर यद्यपि अब अधिक नहीं मिलते, अधिकांश में प्रकाशित उनके लेखों और Studies in Jain Art मध्यकाल के ही मिलते हैं पर अब प्राचीन जैन मूर्तियां पुस्तक से उनकी सुक्ष्म गवेषणा का पता चल जाता है। मौर्यकाल से निरन्तर मिल रही हैं। उनका कला की दृष्टि उन के अध्ययन एवं खोज में बहुत सी भूल भ्रांतियों का से बहुत ही महत्त्व है । परवर्तिकाल में मूर्तियों की कला निराकरण होकर नई जानकारी प्रकाश में आती है। जीवन्त में बहुत कुछ हास हुआ यद्यपि संख्या की दृष्टि से उस स्वामी की प्रतिमा के सम्बन्ध में भी उन्होनें नया प्रकाश समय से मूर्तियां बहुत अधिक बनी। पर कला की दृष्टि डाला है। उसके आधार से अब वैसी मूर्तियां अन्य स्थानों से सुन्दर बहुत कम ही हैं। पाषाण की मूर्तियों के साथ में मिलती है तो उनकी पहचान में बड़ी सुविधा हो गई साथ धातु मूर्तियों की कला भी विकसित होती गई और है। राजस्थान प्रांत के प्रसिद्ध नागौर नगर के पास उसमें पाषाण मूर्तियों की अपेक्षा विविधता अधिक खींवसर गांव में हाल ही में जीवन्त स्वामी की प्रतिमा मिलती है। अतः जैन कला का अध्ययन करने के लिए प्राप्त हुई जो अब जोधपुर म्यूजियम में है। उस प्रतिमा का उनका महत्त्व निर्विवाद है। जैन मूर्तियों की सौम्य एवं परिचय श्री रतनचंद्र अग्रवाळने ब्रह्म विद्या नामक पत्र प्रशान्त मुद्रा मानव हृदय में सात्त्विक भावनाओं को के भाग २२ के अंक १, २ (मई १९५८) में प्रकाश उत्पन्न करती है । जैन धर्म के प्रचार और स्थायित्व में डाला है। उनके अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद श्री भी जैन मंदिर व मूर्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन चंद्रदानजी चारण से करवाकर यह प्रकाशित करवाया जैन इतिहास की सर्वाधिक और प्रमाणिक सामग्री भी ___ जा रहा है। उन मन्दिरों एवं मूर्तियों के अभिलेखों में ही सुरक्षित 'राजस्थान से प्राप्त जीवन्तस्वामी की एक मूर्ति' है। बहुत से गच्छ एवं जातियां जो अब नामशेष हो अकोटा में प्राप्त जैन कांस्य मूर्तियों के समूह से पश्चिमी चुकी है, उनका पता उन प्रतिमा लेखों से ही मिलता है।
भारत की आरम्भिक जैन मूर्ति कला पर प्रकाश पडा है। उनके संबंध में अन्य कोई भी सामग्री प्राप्त नहीं है।
इस समूह में शिलालेख सहित जीवन्तस्वामी की एक अनुपम जैनेतर समाज के अपेक्षा भी जैनों ने अपने इतिहास के
मूति है जिसका सचित्र उल्लेख श्री यू. पी. शाह ने जर्नल साधन अधिक प्रमाण में निर्माण किए है यह विशेष रूप
ऑफ ओरियन्टल इन्स्टीटयूट बड़ोदा के वर्ष १ अंक १ से उल्लेखनीय है।
(सितम्बर १९५१) में पृष्ठ ७२-७९ पर और अपनी - तीर्थंकरों की मूर्तियों के साथ साथ अन्य देवि देवताओं पुस्तक "स्टडिज इन जैन आर्ट (जैन कला का अध्ययन) का सम्बन्ध कब से जुडा इसका निश्चित प्रमाण नहीं बनारस, १९५५ में पृष्ठ ४ पर किया है । डाक्टर शाह के मिलता पर इन देविदेवताओं की क्रमशः वृद्धि होती गई, अनुसारयह निश्चित है। जैन कला के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों "जीवन्त स्वामी प्रव्रज्या ग्रहण से पूर्व अपने प्रासाद में अधिक उल्लेख व विवरण नहीं मिलता और ऐसे ग्रन्थों के अभाव में कला के विकाश का अध्ययन प्राप्त १. जर्नल आफ इंडियन म्यूजियम्स, बम्बई, वोल्यूम ११, सामग्री के आधार पर ही किया जा सकता है।
१९५५ पृष्ठ ४९.