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________________ જેન યુગ ૨૭ નવેમ્બર ૧૯૫૮ जैन गीतों की परम्परा श्री प्यारेलाल श्रीमाल, बी. कॉम., संगीतरत्न, विशारद, भारतीय साहित्य में गीतिकाव्य की परम्परा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। सूर, तुलसी, मीरा, कबीर प्रभृति सन्त कवियों ने गेय पदों की रचना द्वारा हिन्दी साहित्य के भंडार को समृद्ध बनाया है। इन भक्त कवियों की रचनाओं ने इतनी लोकप्रियता प्राप्त की है कि मन्दिरों ही में नहीं अपितु घर घर में अद्यापि उनकी गूंज सुनाई देती है। जैनमन्दिरों में भी गाये जाने वाले पद सहस्रों की संख्या में उपलब्ध होते हैं जिनमें अनेक साहित्य एवं संगीत की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। वर्षों से प्रयोग में आते रहने के कारण इनका स्वरूप स्थायी, मर्मस्पर्शी तथा लोकप्रिय बन गया है । इन गीतों में पाया जानेवाला भाषा का लालित्य तथा स्वरों का माधुर्य श्रोता पर दोहरा प्रभाव डालता है। ये गीत पद अथवा भजन के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं। एक उदाहरण देखिये: "केशरिया थांसूं व्रत प्रीत करी जी सांचा भाव सूं। धुलेवा थातूं प्रीत करी जी सांचा भाव सूं ॥ मधुकर मोहयों मालती जी में मोहयो तुझ नाम । और देव ने नहीं नमूं मैं भजूं अलख भगवानजी ॥ केशरिया ॥" आदि... धार्मिक पर्वो पर तथा पूजाओं में जैनियों द्वारा इन भजनों की प्रायः पुनरावृत्ति की जाती है। विगत छः मास के शोधकार्य से मुझे विभिन्न रागों तथा तालों में आबद्ध ऐसे अनेक प्राचीन पद मिले हैं जो सामान्यतः जैनियों घर घर में महिलाओं के द्वारा लोकगीतों के समान प्रयोग में आ रहे हैं । किन्तु वर्तमान रचनाओं में ऐसे कितनेक जैन गीत, जिनको भाव तथा कला पक्ष की दृष्टि से साहित्य अथवा संगीत में उच्च स्थान दिया जा सके, नहीं मिलते। अधिकांश गीतों में निरी तुकबन्दी याने मस्तिष्क की खुरचन ही पाई जाती है और वह मी ढंग की नहीं । भाव और भाषा तो दूर की बात है, वर्ण और मात्रा की त्रुटियों की भरमार पाई जाती है | विषयों की नवीनता के अभाव में विचारों की मौलिकता का तो पूछना ही क्या १ बात यह है कि जैनगीत उन लोगों द्वारा रचे जा रहे हैं जो न तो व्याकरणाचार्य हैं और न छन्दशास्त्री है। साहित्य से जिनका सम्बंध तो ठीक परिचय भी नहीं। कविहृदय न होते हुए मी मात्र यशलिप्सा से प्रेरित होकर इन गीतों की रचना की जाती हो ऐसा प्रतीत होता है। कुछ साहित्यरत्न विद्वानों की रचनाओं में भी यही बात पाई तब मुझे बड़ा दुःख हुआ। जितनी जैन भजन की छोटी मोटी पुस्तकें देखीं उनमें अधिकांश गीत फिल्मी गीतो की धुन पर जोडे हुए पाये गये। फिल्मी गीतो में भी अनेक धुनें भक्तिरस युक्त पाई जाती हैं, यदि उन पर पद रचे तब तो ठीक भी है किन्तु फिल्म की शृंगारिक धुनों पर पदों की रचना व्यर्थ प्रयास नही तो क्या है ! वैसे जो पुगने अति प्रचलित लोकप्रिय जैनगीत समाज में गाये जाते है वे काव्य तथा संगीत दोनों की दृष्टि से उत्तम है। अवतारवाद के सम्बन्ध में जैनधर्म की अपनी पृथक मान्यता है। गीता में श्रीकृष्ण कहते है कि हे अर्जुन । मैं धर्म की रक्षा के हेतु बारम्बार अवतार लेता हूं। किन्तु जैन के तीर्थकर जो एक बार मौक्ष में जा चुके वे पुनः लौट कर नहीं आते । स्पष्टतः उन पर वैष्णव भक्ति का प्रभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणाथ : “वीर प्रभू आवो। कर्मजाल से मुझे छुडाओ ॥ महिमा तिहारी अपरम्पार, तुमही संकटमोचन हार। काम क्रोध भय पीड़ित जग को, शिवपुर राह बताओं।" तीर्थकर के चरित्र का गुणगान, उनका नामस्मरण, भक्त की दुर्बलताओं का प्रदर्शन, धार्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन आदि विभिन्न समुचित विषयों पर गीत रचना होनी चाहिये । अनेक कथाओं के ऐसे प्रसंग हैं जिन पर नीति के सुन्दर गीत निर्मित हो सकते हैं। संवाद के लिये प्रायः नेमजी और राजुल का ही विषय लिया जाता है।
SR No.536282
Book TitleJain Yug 1958
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1958
Total Pages82
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size8 MB
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