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________________ જેન યુગ ૨૫ નવેમ્બર ૧૯૫૮ जम्बू द्वीप पन्नती के पश्चात् दूसरा देवी का महत्वपूर्ण उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है। प्रसंग है कि भगवाम् महावीर जब माता के गर्भ में आये तो उनकी माताने १४ स्वप्न देखे । उनमें पांचवा स्वप्न भी देवी का है। उस स्वनका वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने देवी के रूपाति का विस्तार से वर्णन किया है। उनमें अंगोपांगों का वर्णन जिस प्रकार कवि सम्प्रदाय में किया जाता है उसी प्रकार करके श्री देवी को पनद्रह मे निवास करने वाली हिमवन्त पर्वत के शिखर के हाथियों से अभिसिञ्जमान बतलाया है। आज भी हम लक्ष्मी देवी के चित्रों के दोनों ओर हाथी की सूड़ो से अभिसिंचित किया हुआ देखते हैं। उपर्युक्त दोनों प्राचीन उल्लेखों से देवी के निवास्थान और उसके स्वरूप की झांकी मिलती हैं । पर लक्ष्मी के अधिष्ठता के रूप में वह कब और कैसे प्रतिष्ठित हुई, यह विचारणीय रह जाता है । जैन साहित्य की श्री देवी ही लक्ष्मी है। यह तो उपर्युक्त वर्णन से भलिभाति सिद्ध है। अब हम मध्यकाल में आते हैं। तो जैन धर्म में जो निवृत्ति प्रधान धर्म है, उसके द्वारा लक्ष्मी देवी की उपासना कब प्रविष्ट हुई ईस समस्याका समाधान मिल जाता है । जब मंत्र तंत्रो की ओर लोगों का आकर्षण बढ़ा तो जैन समाज में भी अनेक प्रकार के मंत्र और कल्पादि का प्रचार बढा। आचार्य पद के साथ जो जैन समाज में 'सूरि' शब्द का प्रयोग होता हैं वद सूरि मंत्र के आगधना का परिचायक है। सूरि मंत्र के पांच पीठ माने गए हैं। विद्यापीठ, २ महापीठ, ३ लक्ष्मीपीठ, ४ मंत्र पीठ और ५ मंत्रगज पीठ । इनके प्राचीन नाम में विद्यापीठ, महाविद्यापीठ, उपविद्यापीठ; मंत्रपीठ और मंत्रराज पीठ भी मिलते हैं। इनमें तीसरे पीठ की अधिष्ठता श्री देवी या लक्ष्मी देवी ही मानी गयी हैं । मेरुतुंग सूरि मंत्र कल्प में 'तहप' पीठ लक्ष्मी अदिष्ठठ्य लक्ष्मी फल हेतु शब्दों द्वारा लक्ष्मी देवी से लक्ष्मी रूपी फल का सम्बन्ध जोड़ा गया है। विजया, जया, जयन्ति, नन्द्रा और भद्रा के साथ श्री देवी को तृतीय पीठ का अधिष्ठता मनाया गया है। ईस से श्री देवीका ईन देवीओ के साथ भी घनिष्ट सम्बन्ध प्रतीत होता है। सूर मंत्र कल्प में श्री देवी से लक्ष्मी प्राप्ति की प्रार्थना की गई है। इससे जैन मंत्रवाद में लक्ष्मी देवी के स्थान होने का पता महत्वपूर्ण चलता है । अब हम इसके बाद लक्ष्मी देवी की पूजा का प्रचार जैन समाज में किस रूप में रहा, इस पर विचार करते हैं। राजस्थान के प्राचीन नगरों में श्रीमाल नगर विशेष आलेखित है। उसका अपर नाम भिन्नमाल भी मिलता है। कहीं कहीं भिन्लमाल भी पाया जाता है। भिन्नमाल नाम ही ज्यादा प्रचलित रहा। आज भी उसका परिवर्तित रूप भीनमाल ही प्रसिद्ध है। पुराणों के अनुसार श्री देवी इस नगर की अधिष्ठात्री देवी थी। 'श्रीमाल' पुगण में इसका बहुत विस्तार से वर्णन है। आज भी यहां लक्ष्मी देवी का मन्दिर विद्यमान है। श्रीमाल नगर के पतनकाल में यहां के निवासी व्यापारादि के लिए गुजरात में पहुंचे। तब उनकी ज्ञाति पूर्ववर्ती निवासस्थान की स्मृति में श्रीमाली सिद्ध हुई। श्रीमाल नगर में हजारों घर ब्राह्मणों के और हजारो ही जैनवैष्यों के। फलतः श्रीमाली ब्राह्मण और जैन श्रीमाल दोनों ही बहुत प्रसिद्ध जातियां है। इस जाति की कुलदेवी लक्ष्मी देवी है। जिस प्रकार उपकेशीपुर औसियों से ओसवाल जाति प्रसिद्ध हुई और उनकी कुलदेवा औसियों की सच्चीका देवी है और पोग्वाड़ा की कुलदेवी अम्बिका माने अम्बा । उसी प्रकार श्री माल जैन जाति की कुलदेवी लक्ष्मीदेवी है। लक्ष्मी की पूजा आवश्यक हो जाने पर अन्य स्थानों में भी मूर्तिया बनाकर स्थापित किया जाना स्वाभाविक ही है। काठियावाड़ के दीव बन्दर के जैन मन्दिर में लक्ष्मी देवी की दो मूर्तिया विद्यमान हैं। कल्पसूत्र का श्वेताम्बर जैन संप्रदाय में बहुत अधिक प्रचार है । प्रतिवर्ष पयूषण के दिनों में कल्पसूत्र का वाचन होता है। श्रद्धाळू श्रावक गुरुओके पास जाकर ड़े उत्सव के साथ उसे सुनते हैं। कल्पसूत्र में, जैसे ऊपर बतलाया गया, भगवान महावीर के माता के गर्भ में आने पर उसने १४ स्वप्न देखे उनमें पांचवा स्वप्न लक्ष्मीदेवी का वर्णीत है। अतः कल्प सूत्रकी सैकड़ों प्रतियो में लक्ष्मीदेवी के सुन्दर चित्र अंकित मिलते हैं। इनमें से १२१५ की ताड़ प्रति में लक्ष्मीदेवी का जो चित्र मिला है वह सबसे प्राचीन चित्र है। इसका चित्र जैन कल्पद्रुम के प्लेट नम्बर ८ चित्र नम्बर ३६ में छपा है। उसका विवरण साराभाई ने इस प्रकार दिया है-यह चित्र २" x २७/८" साइज का है। पृष्टभूमि सिन्दुरीया रंग की हैं। चार हाथ ऊपर के बाए और दाए हाथों में कमल विकसित फूल और प्रत्येक फूल के मध्य में एक एक सूड द्वारा अभिषेक करने को तत्पर दिखाया गया है। नीचे के दाहिने हाथ में
SR No.536282
Book TitleJain Yug 1958
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSohanlal M Kothari, Jayantilal R Shah
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1958
Total Pages82
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size8 MB
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