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જૈન યુગ
२३
નવેમ્બર ૧૯૫૮
जैन साहित्य और कलामें लक्ष्मी
श्री अगरचन्द नाहटा
दीपावली भारतीय पर्यों में बहुत ही विशिष्ट पर्व है। जग-जीवन में यह आनन्द और उल्लास संचारित करनेवाला त्यौहार है। होली भूतों की मानी जाती है तो दिवाली देवताओं की । मूलतः इस त्यौहार की उत्पत्ति कब और किस कारण से हुई, इस विषयमें जैन और जैनेतर दो विभिन्न मत है। भगवान महावीर के निर्वाण के पहले यह पर्व प्रसिद्ध था नहीं और था तो किस रूप में इस विषय में गम्भीर अन्वेषण करने के पश्चात ही कुछ निर्णयात्मक कहा जा सकता है । जहांतक जैन धर्म का सम्बन्ध है, यह पर्व भगवान महावीर के निर्माण के उपलक्ष में ही प्रसिद्ध हुआ प्रतीत होता है। जैनागम कल्पसूत्र में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को भगवान महावीर का निर्वाण पावा में हुआ। उस रात्री में निर्वाणोत्सव के प्रसंग से बहुत से देवीदेवियों के आने से अन्धकारपूर्ण रात्रि में उद्योत प्रकाश फैल गया और भाव उद्योतरूप भगवान् महावीर के अस्तगत हो जाने पर द्रव्य उद्योत के रूप में देवों द्वारा रत्नों एवं दीपकों द्वारा प्रकाश किया गया। इसी उपलक्ष में दिवाली पर्व की उत्पत्ति कही जाती है। 'दिगम्बर तिलोष पन्नत्ति' ग्रन्थ में वीर निर्वाण कार्तिक वदी १४ की रात्रि को बतलाया जाता है।
दिवाली के दिन लक्ष्मीपूजा की जाती है। यह कितनी प्राचीन है, अन्वेषणीय है। पूरानों के अनुसार लक्ष्मी पूजा पौष, चैत्र, और भाद्रपदमें विधेय था। दिवाली के दिन लक्ष्मीपूजा पीछेसे प्रचलित हुई प्रतीत होती है। जब की दिवाली के साथ लक्ष्मी का अतूट सम्बन्ध हो गया है तो लक्ष्मी देवी कौन है, इसकी चर्चा करना भी आवश्यक हो जाता है। इस सम्बन्ध में पूराणोका जो दृष्टिकोण है वह सर्व विदित है। यही जैन दृष्टिकोण से ईस सम्बन्ध में विचार किया जा रहा है।
'ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सृष्टि के पहले रास मण्डल-स्थित परमात्मा श्रीकृष्ण के वाममार्ग से श्री लक्ष्मी देवी उत्पन्न हुई। चतुर्भुज नागयण को लक्ष्मी का पति समझिए । दूसरी मान्यता के अनुसार समुद्रमन्थन से लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई । लक्ष्मी और श्री (शोभा) का अटूट सम्बन्ध है। इस लिए लक्ष्मी का नाम श्री देवी भी
है । लक्ष्मी देवी स्निग्ध दृष्टि से समस्त विश्व पर लक्ष करती है, इसलिए वह महालक्ष्मी कहलायी । लक्ष्मी के पर्यायवाची नामों में पद्मालया, पद्मा, कमला, हरिप्रिया, इन्दिरा, लोकमाता, क्षीराब्धितनया, रमा, जलघिजा, भार्गवी, हरिवल्लभा, दुग्धाब्धितनया, क्षीरसागरसुता आदि नाम कोश ग्रन्थों में मिलते हैं। इनमें पद्मा कमला के साथ लक्ष्मी का सम्बन्ध उल्लेखनीय है।
स्कन्ध पुगण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में लक्ष्मी किसके यहां निश्चल होकर रहती है इसका सुन्दर वर्णन हैं । गरुड़ पुराण और मार्कण्डेय पुगण में भी लक्ष्मी का चरित्र विस्तार से वर्णित है। पीछे के पद्मपुगण आदि में दीपमालिका के दिन लक्ष्मी का आगमन होता है। इसलिए लोग दीपकों का प्रकाश करके उसके अपने गृह में आगमन की प्रतीक्षा करते हैं और पूजन करते हैं।
पौराणिक मान्यता दे देने के पश्चात अब लक्ष्मी देवी का जैन साहित्य और कला में जो विवरण प्राप्त होता है उसका परिचय यहां कराया जा रहा है।
सर्वप्रथम प्राचीन जैनागम 'जम्बुद्वीप पन्नति, में लक्ष्मी के निवासस्थान का जो सुन्दर वर्णन मिलता है उसे ही यहां दिया जा रहा है। इससे हिमवन्त पर्वत के पध्द्रह में लक्ष्मी का निवास स्थान हैं और पद्म या कमल उसके अत्यन्त प्रिय पुष्प है। ज्ञात होता हैं जैन साहित्य में लक्ष्मी का नाम सर्वत्र श्री(सिरी)देवी अधिक व्याहृत हुआ है। श्री का भारतीय साहित्य कला और जनजीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। प्रत्येक व्यक्ति के नाम के आगे श्री, श्रीयुत लिखा जाता है। मंत्राक्षरी में भी ओम् , हीं के साथ श्री प्रयोग अवश्य होता है।
जैनागमानुसार लक्ष्मीदेवी का निवास तस्सन-इत्यादि-उस चुल्ल हिमवन्त पर्वत के न्हु-सम रमणीय भूमि के बहू मध्यप्रदेश भाग में वहां एक महान् मप्रमह नाम का द्रहनिरूपित है। पूर्व पश्चिम में लम्बा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा है, जो लम्बाई में एक हजार योजन एवं चौड़ाई में पाच सौ योजन है, जो दस योजन ऊंचा हैं, जो अत्यन्त स्वच्छ जलवाला मजबूत चांदी के बने