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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो सात नाम मिलते हैं उनका सामगान में क्या क्रम है इस विषय में विविधता दिखायी पडती है। वैदिक स्वर सप्तक के लिये प्रयुक्त नामों के अध्ययन से यह बात प्रतीत होती है कि वैदिक साम में मूलतः तीन ही स्वर थे - कुष्ट, मन्द्र और अतिस्वार्य जो क्रमशः उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित के ही समकक्ष रहे होंगे । कुष्ट उच्च स्वर था, मन्द्र मध्यम तथा अतिस्वार्य गिरता हुआ निम्न स्वर था । कालान्तर में कुष्ट और मध्यम के बीच में अवरोही क्रम से चार स्वर आयामों का गान होने लगा जिसका नाम प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ था । ये अवरोही क्रम से उच्च स्वर के ही अवान्तर स्वरान्तराल थे । सामगान की परम्परा में ये ही सात स्वर थे । इन्हीं स्वरों का न्यूनाधिक मात्रा में प्रयोग अपनी-अपनी शाखाओं में किया जाता था । पु. सूत्र का स्पष्ट रूप से यह कथन हैं कि कौयुम शाखा में केवल दो ही साम. ऐसे हैं जिनका सात स्वरों में गान मिलता है। अन्यत्र कहीं दो, कहीं तीन, कहीं चार, कहीं पांच तथा कहीं छ: स्वरों में गान होता है ।26 नारदीय शिक्षा के अनुसार ऋग्वेदियों की परम्परा में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्वर का प्रयोग पाया जाता है। नारदीय शिक्षा में कुछ ऐसे आचार्यों के मत को उद्धृत किया गया है जिनके अनुसार कठ, कालापक, तैत्तिरीय, ऋग्वेद तथा सामवेदी प्रथम स्वर में ही गान करते है।27 कुछ आचार्यों का ऐसा भी मत है ऋग्वेद के गान में द्वितीय और तृतीय स्वर होते हैं ।28 यजुर्वेद की आव्हरक शाखा में तृतीय, प्रथम तथा कुष्ट स्वरों का प्रयोग किया जाता है । तैत्तिरीय शाखा में द्वितीय से लेकर मन्द्र तक अर्थात् द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ तथा मन्द्र इन चार स्वरों में गान का प्रयोग विहित है।39 सामवेद की ताण्डि तथा भाल्लवि शाखाओं में स्वरो का न्यूनाधिक प्रयोग किया जाता है । 'सामतन्त्र स्वरोऽनन्त्यः' सूत्र के द्वारा पांच स्वरों के ही प्रतीक - गि, जि, डि, दि तथा बि - प्रथम, द्वितीय, तृतीय चतुर्थ एवं पंचम - का ही उल्लेख करता है। सामगान में इन स्वरों का क्रम और नियम क्या है इसका विधान सामतन्त्र में किया गया है । प्रत्येक गान में सभी स्वर हो आवश्यक नहीं । सामगान के जो पर्व है उनमें स्वरों की विविधता दिखायी पडती हैं । पर्यों में प्रयुक्त स्वरों के आधार पर पर्यों के दो प्रकार के विभाग पड़ते है - (1) एक स्वर पर्व (2) अनेक स्वर पर्व । एक स्वर पर्व : ऐसा पर्व जिसमें एक स्वर का गान किया जाता है, एक स्वर पर्व कहलाता है। अतिस्वार्य के अतिरिक्त अन्य प्रथमादि छ: स्वरों के एक स्वर वाले छ: पर्वप्रकार होते हैं, जैसे - तद्विविड्डाइ पर्व प्रथम स्वर में गाया है । 'इन्द्रंविश्वाः' यह पर्व द्वितीय स्वर में गाया है । ई पर्व तृतीय स्वर में गाया गया है । “हिताः" इस पर्व का गान चतुर्थ स्वर में किया गया है। इसी प्रकार 'अग्निदूताम्' पर्व मन्द्र स्वर में गाया गया है । क्रुष्ट स्वर में गाये जाने वाले पर्व का उदाहरण प्राप्त नहीं होता । अनेक स्वर पर्व-अनेक स्वर पर्व वे पर्व है जिनमें एक से अधिक स्वरों का गान किया जाता है। ऐसे पर्वो के पुनः तीन प्रखार हैं - (1) अनुलोमगीत (2) प्रतिलोमगीत (3) उभयलोमगीत कहलाता है । इस प्रकार के पर्व में प्रारम्भिक स्वर ऊँचा तथा परवर्ती गाये जानेवाले स्वर क्रमशः नीचे होते है; जैसे 'अन्धी ऐ 5 ३ जारी' आदि । आन्धी पर्व में प्रथम स्वर के बाद द्वितीय स्वर का गान किया गया है जो कि प्रथम से निम्न है । इस पर्व में दो ही स्वरों का गान है । इसी प्रकार आग्नाये 5 3', 'त्या 5 ३ ४ म्', 'प्रत्यैग्ने' तीन स्वरयुक्त "तोऽ२३४५ई" ऊत्तएकाम आदि स्वरों से युक्त तथा ओऽ२३४५६" आदि पाँच स्वरों वाले अनुलोमगीत पर्व के उदाहरण है । प्रतिलोमगीतपर्व : प्रतिलोम सामवेद में स्वर-सिद्धान्त पद्धति विषयक निरूपण ૩૫ For Private and Personal Use Only
SR No.535843
Book TitleSamipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2007
Total Pages125
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size10 MB
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