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पूर्व है तो उसके ऊपर 2 चिह्न नहीं लगाते, जैसे - त्वया३ङ्ग। इसका कारण यह है कि कम्य स्वर हस्व नहीं होता दीर्घ ही होता है ।।३ साम स्वरः सप्तस्वरपद्धति - वैदिक संहिताओं का उच्चारण जो चातुःस्वर्य या त्रैस्वर्य पद्धति के अनुसार किया जाता था वह बलाघात तथा स्वराघात दोनों पर आधारित था । स्वराघात पर आधारित उच्चारण में एक प्रकार की गेयात्मकता थी, किन्तु वह गेयात्मकता केवल ऋग्गत पदों के एक विशेष प्रकार के उच्चारण में ही सन्निहित थी । ऋग्गत पद में किसी भी प्रकार का विकार या किसी प्रकार का आगम स्वीकार्य नहीं था, किन्तु धीरे-धीरे 2 स्वराघात पर आधारित उच्चारण एक विशेष रूप धारण करता गया जो चातुःस्वर्य या त्रैस्वर्य पद्धति से अलग होकर स्वतन्त्र रूप से सप्तस्वर पद्धति को प्राप्त हुआ ।14 इसलिये जब साम स्वर की चर्चा करते हैं तो हमारा अभिप्राय इस सप्त स्वर पद्धति से ही है, क्योंकि साम का गान सप्तस्वर पद्धति के अनुसार ही किया जाता था। इस सप्तस्वर पद्धतिवाले गान में ऋग्गत पदों में विकार तथा नये सार्थक या निरर्थक पदों के आगम भी गान की सुविधा के लिये किये जाते थे ।
वैदिक साम का गान जो सप्तस्वर पद्धति में किया जाता था उसमें कौन-कौन से सात स्वर थे इसका स्पष्ट विवेचन संहिता-साहित्य में नहीं मिलता । संहिताओं में केवल सात स्वरों का संकेत ही मिलता है जहाँ वाणी के सप्त प्रकार का उल्लेख किया है । वहाँ सप्तस्वर से किन-किन स्वरों का बोध होता है, इसका विवेचन हमें जाकर ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त होता हैं । सामविधान ब्राह्मण में पहलीबार सात स्वरों का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है । वहाँ सात स्वरों का कुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मन्द्र तथा अतिस्वार्य - नाम प्राप्त होता है संहि. ब्रा. में भी इन्हीं सात स्वरों का नामशः उल्लेख है । साम. के प्रातिशाख्य ग्रन्थों सामतन्त्र पुष्यसूत्र, पंचविधिसूत्र में इन सात स्वरों का भी इसी नाम से उल्लेख प्राप्त होता है । शिक्षाग्रन्थों में इन सात स्वरों के दो प्रकार के नाम प्रयुक्त मिलते है । प्रथम तो वही कुष्ट, प्रथम, द्वितीय आदि" और द्वितीय षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंञ्चम, धैवत तथा निषाद ये सात नाम मिलते है ।। षड्जादि सात स्वर-नामों का उल्लेख भाषिक सूत्र में भी हुआ है । भारतीय परम्परा में इन दो प्रकार के नामों को अलग अलग "सामस्वर" 20 तथा "गान्धर्वस्वर" की संज्ञा प्रदान की गयी है। वैदिकोत्तर लौकिक सङ्गीत में इन्हीं षड्ज आदि स्वरों का नाम सप्त स्वरों के लिये रूढ हुआ । वाजसनेयि प्राति 1.2.27 के भाष्य में उवट ने सप्त का अर्थ षड्ज, ऋषभ आदि सात स्वर किया है । वहीं पर "अपरे" कह कर अन्य आचार्य के मत का उल्लेख करते हुए यह लिखा है कि सप्त स्वर का अभिप्राय यजुर्वेद के प्रसंग से सात प्रकार का स्वरित है - जात्य अभिनिहित, क्षेत्र, प्ररिश्लिष्ट, तैरोव्यंजन, तैरोविराम तथा पादवृत्त ।23 किन्तु यह ठीक प्रतीत नहीं होता क्योंकि जात्यादि इन सात स्वरितों को साम गान कठिनाई है। जात्य, अभिनिहित, क्षेप्र स्वरित से मानी गयी है । किन्तु इन जात्यादिको को षड्ज आदि का पर्याय नहीं माना जा सकता ।
ऋकप्रातिशाख्य में इन्हीं स्वरों को यम की संज्ञा दी गयी है ।25 उवट ने ऋक्प्रातिशाख्य 1344 की व्याख्या में स्पष्ट रूप से लिखा है कि गान्धर्व वेद में जिनको षड्ज, ऋषभ आदि नाम से तथा साम में कष्ट, प्रथम द्वितीय आदि नाम से पुकारा जाता है; उन्हीं स्वरों की यम संज्ञा है । कुष्ट, प्रथम आदि
उ४
सामीप्य : पु. २४,
१-२, अप्रिल-सप्टे., २००७
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