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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्व वह पर्व है जिसमें स्वरों का गान आरोह क्रम से किया जाता है । इस में नीच स्वर से ऊँच स्वर की और जाया जाता है, जैसे 'नन्दाइ' दो स्वर वाले इस पर्व में प्रारम्भिक स्वर द्वितीय है तथा अगला स्वर प्रथम है जो कि द्वितीय स्वर ऊचा है । यही आरोह-क्रम है। इसी प्रकार नुजना' तीन स्वर तथा 'सहोवानन्ता' चार स्वर वाले प्रतिलोमगीत पर्व के उदाहरण है। उभयविधगीत पर्व : उभयविधगीत पर्व वह पर्व है जिसमें स्वरों के विन्यास में आरोह तथा अवरोह दोनों क्रम होते है। उभयविधगीत पर्व के पूनः दो प्रकार है। प्रथम प्रकार में जिस स्वर से गान प्रारम्भ किया जाता है उससे नीच स्वरों का गान करते हुए पुनः उसी ऊँचे स्वर में पर्व समाप्त होता हैं, जैसे 'वाइश्पताई' इस पर्व में प्रथम स्वर के बाद द्वितीय स्वर का गान हुआ है । द्वितीय प्रकार में निम्न स्वर से पर्व का प्रारम्भ करके ऊँचे स्वरों का गान करते हुए पुनः निम्न स्वर में ही पर्व की समाप्ति होती है । जैसे - 'नेमहोभिः', 'प्रंगा३', 'दूताऽ३भ्वोऽ३', 'विश्ववेदोम' आदि । इन पर्व प्रकारों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि यह वस्तुतः स्वरों के विन्यास के प्रकार पा.शि. में पद के आधुदात्त, मध्योदात्त, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि नौ प्रकार है जिन्हें पदशय्या की संज्ञा दी गयी है ।2 उसी प्रकार सामगान में सात स्वरों के मेल से तीन सौ पाँच प्रकार बनते है इन्हें पूर्वशय्या की संज्ञा दी जाती है। सामगान सात स्वरों में किया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि कुष्ट तथा अतिस्वार्य स्वर से कोई भी साम आरम्भ नहीं होता तथा कुष्ट स्वर से किसी साम की समाप्ति भी नहीं होती । सभी साम प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और मन्द्र स्वरों में से ही किसी स्वर से आरम्भ होते हैं। इन सात स्वरों के स्वतन्त्र तथा परस्पर मेल से विभिन्न पर्वो का निर्माण होता है। आज प्राप्त समस्त सामों में प्रथम स्वर से प्रारम्भ होनेवाले 92 पर्व, द्वितीय स्वर से प्रारम्भ होनेवाले 118 पर्व, तृतीय स्वर से प्रारम्भ होनेवाले 45 पर्व चतुर्थ स्वर से प्रारम्भ होनेवाले 25 पूर्व मन्द्र स्वर से प्रारम्भ होनेवाले 20 पर्व तथा कुष्ट स्वर से प्रारम्भ होनेवाले 2 पर्व है । सामगान स्वरांकन पद्धति : वैदिक गान में जिन सात स्वरों का प्रयोग होता है उनको सामवेद की गान - संहिता में क्रमशः एख से लेकर सात अङ्कों तक प्रदर्शित किया जाता हैं । क्योंकि कुष्ट स्वर किसी भी गान के प्रारम्भ तथा अन्त में प्रयुक्त नहीं होता था इसलिये इस स्वर का प्रतीक 7 अङ्कगान संहिता में कहीं भी नहीं मिलता । इसी प्रकार अतिस्वार्यस्वर गान के प्रारम्भ में नहीं आता इसलिये प्रारम्भ में मन्द्र स्वर होता है जिसको 5 अङ्क के द्वारा चिह्नित किया जाता है। इस प्रकार अवरोह क्रम में जब इन स्वरों का प्रयोग किया जाता है इनका क्रम |-2-3-45 होता है और आरोहक्रम में जब इन स्वरों का प्रयोग किया जाता है तो इनका रूप 5-4-3-2-1 होता है । सात स्वरों के प्रतिक सात स्वर 1-2-3-4-5-6-7 इन सात अङ्कों से प्रदर्शित किये जाते हैं । एक वर्ण ऊपर जैसे उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित के लिये आर्चिक-संहिता में स्वर-चिह्न प्रयोग किया जाता है और दूसरा मन्त्रों के वर्गों के बीच में जैसे मियाऽ३४५म् । प्रथम द्वितीय तृतीय आदि स्वरों के द्योतक 1-2-3 आदि अङ्को के अतिरिक्त भी कुछ चिह्नों का प्रयोग गान ग्रंथों में पाया जाता है। ये चिह्न दो प्रकार के है - (1) अक्षरात्मक (2) संङ्केत चिह्न। अक्षरात्मक : न शुद्ध प्रथम स्वर का उच्चारण, जब शुद्ध द्वितीय स्वर तक किया जाता है तो उसको ६ सामीप्य : पृ. २४, १-२, अप्रिल - सप्टे., २००७ For Private and Personal Use Only
SR No.535843
Book TitleSamipya 2007 Vol 24 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2007
Total Pages125
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size10 MB
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