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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अर्थात् आत्यंतिक कल्याण अर्थात् मोक्ष - को कहनेवाली उस (वाणी) का स्वभाव होने से परमार्थ को कहनेवाली - ऐसा कहा गया | द्रव्यादि के अनुयोग भी परंपरा से मोक्ष के प्रयोजन रूप होने से परमार्थ का कथन करनेवाले माने गये हैं। और भी सब देवता, मनुष्य तथा तिर्यंच् (पक्षी) की सुंदर भाषाओं में परिणत होती अर्थात् तन्मयता को प्राप्त करती है; अतः वह 'सर्वभाषापरिणता' है। एकरूप होती हुई भी भगवान की अर्धमागधी भाषा बादलों ने छोडे हुए जल की भाँति आश्रय के अनुरूप बनके परिणत होती है । ३ इस तरह जगत के लिए विस्मयरूप अतिशय अर्थात् श्रेष्ठत्व बिना एकसाथ अनेक प्राणियों पर उपकार करना संभव नहीं हो पाता ।४ (१) जैनी वाणी अर्धमागधी भाषा हेमचन्द्र के 'विवेक' में द्रव्यानुयोग' के सिवा कोई पद पर प्रकाश डाला नहीं गया है। हेमचन्द्र प्रस्तुत मंगल पद्य के विवरण से निम्नोक्त तथ्य उभर आते हैं जैनों की सरस्वती जिनोपज्ञा है और जिन वह है जिसने राग www.kobatirth.org - द्वेषादि कषायों को जित लिया है । (२) राग-द्वेष विहीन चित्तवाले मुनियों की वाणी होने से उसकी कारणशुद्धि स्वयं स्पष्ट है अतः यह उपादेय है, स्वीकार योग्य है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ww (३) बोली जाती है इसलिए 'वाक्' वाणी है और अकारादि वर्ण, पद और वाक्यादि भावरूप होने से भाषाद्रव्य में परिणत होती है । उसकी उपासना हम करते I (४) उपासना का अर्थ है योगशास्त्र में कथित प्रणिधान ध्यान चिंतन इत्यादि । (५) वाणी के जो पद हैं वे स्वभावतः ही मधुर होने से आस्वाद्य हैं जो पद नामादि अर्थ को दर्शाते मनन हैं । ३८ - B - (६) स्वच्छ, मधुर, सुकुमार आदि (शब्द) केवल गुणवाचक ही होते हैं । स्वच्छ, माधुर्यादि काव्यगुण से यह वाणी परिपूर्ण है यह गर्भितार्थ भी ध्वनित होता है । (७) स्वाभाविक प्राकृत (संस्कृत नहीं हैं याने परिस्कृत नहीं हैं) पद होने से ही स्वादुमधुर होते हैं तथा मन्दमति वालों को भी सरल लगते हैं । यह सब गीतादि के भी समान है । (८) परमार्थ निःश्रेयस मोक्ष को कहनेवाली होने से यह परमार्थाभिधायिनी भी है । क्योंकि द्रव्यादि अनुयोग भी परंपरा से निःश्रेयस के ही प्रयोजक हैं । (९) जैनी वाणी सुर नर और तिर्यंच् की सुंदर भाषा में परिणत होती है अर्थात् तन्मयता को प्राप्त होती है अतः इसे "सर्वभाषापरिणता" कहा गया है । For Private and Personal Use Only (१०) एकरूप होने के बावजूद भी भगवान की अर्धमागधी भाषा बादलों ने बरसाये हुए पानी की तरह आश्रय के अनुरूप परिणत होती है। जैसे मेघजल सागर, सरिता, तालाब, आदि आश्रय के अनुरूप बरसता है और आश्रय व्याप में समा जाता है, वैसे अर्धमागधी भाषा भले एक हो मानव, देवतागण सामीप्य : खोस्टो २००६ - भार्य, २००७
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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