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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और तिर्यंच सभी को अपनी-अपनी भाषा में समझ में आती है इसलिए उसे 'सर्वभाषापरिणता' कहा गया है। (११) इन 'अतिशयों' के बिना एकसाथ अनेक जीवों पर उपकार करना असंभव है। अधुना हम नाट्यदर्पणकारों के मंगलपद्य की समीक्षा करेंगे - प्रथम विवेक में मूलग्रन्थ और स्वपज्ञवृत्ति के आरंभ में दोनों के लिए मंगलाचरण का समान पद्य (हालां कि दो बार उल्लेखित करते हैं) उद्-घोषित करते हुए रामचन्द्र गुणचन्द्र कहते हैं - चतुर्वर्गफलां नित्यं जैनी वाचमुपास्महे । रूपैदशभि विश्वं यया न्याय्ये धृतं पथि ॥१/१।। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चतुर्वर्गात्मक फलों को प्रदान करनेवाली, जिनों की उस वाणी को हम नमस्कार करते हैं जिसने अपने बारह रूपों (द्वादशांग - से) द्वारा संसार को न्यायोचित मार्ग में स्थापित किया है। स्वोपज्ञ-वृत्ति में इस पद्य को मंगल-परक और अभिनय-परक दो अर्थों में कहा गया है - (१) चतुर्वर्ग इत्यादि - चतुर्वर्गो धर्म - अर्थ - काम - मोक्ष - यथौचित्यं प्रधानं गौणं वा फलं यस्यां समुदाय - समदायिनोरभेदोऽप्यस्ति, तेन पुरुषभेदेन एक - द्वि - त्रि पुरुषार्थफलत्वेऽपि चतर्वर्गफलत्वं न विहन्यते । इष्टलक्षणात्वाच्च फलस्य यो यस्य, पुरुषार्थोऽभीष्टः स तस्य प्रधानं, अपरो गौणः । 'नित्यम्' इत्यनेन आवश्यकं वाचः चतुर्वर्गफलं प्रति हेतुत्वमुच्यते । अर्थापेक्षया जिनानामियं जैनी । जिनोपदिष्टं ह्यर्थ ऋषयो ग्रथ्नन्ति । 'वाचम्' इति भारतीम् । 'उपास्महे तदर्थानुष्ठानेन समीपे वर्तामहे । समीपवृत्या च तदेकशरणात्मात्वमात्मना रव्यापितम् ॥ (ना.द. पृष्ठ १/१ उपर) चतुर्वर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थ औचित्य के अनुसार जिसके प्रधान या गौण फल हैं वह चतुर्वर्गफला वाणी हुई । समुदाय और समुदायी का अभेद माना जाता है इसलिए पुरुषभेद से एक दो और तीन पुरुषार्थ फल के रूप में हो तो भी चतुर्वर्ग का खण्डन नहीं होता । फल के इष्ट होने से चारों पुरुषार्थों में जिस समय जो पुरुषार्थ जिसको अभीष्ट है, वह उसके लिए प्रधान होता है और अन्य पुरुषार्थ गौण फल वाले होते हैं । चतुर्वर्ग फलों के साथ अन्वित होने वाले 'नित्यम्' इस पदसे वाणी का चतुर्वर्ग फल के प्रति आवश्यक - अनिवार्य - हेतुत्व सूचित किया है। यह जिनवाणी शब्दात्मक ही हो यह आवश्यक नहीं, किन्तु अर्थ की अपेक्षा से (रागादि के जेता) जिनों की यह वाणी होने से उसे 'जैनी' कहा गया है। क्योंकि जिनों के द्वारा बताए गये अर्थ को ही ऋषि अपने ग्रन्थ में ग्रथित करते हैं । वाचम् से भारती - सरस्वती का ग्रहण होता है । उपास्महे अर्तात् इसके अनुष्ठान से समीप-उपस्थित होते हैं । समीप रहने के कारण अपने एकमात्र शरणागतत्व के रूप में प्रतिपादित किया है। जैनी वाचमुपास्महे - (हम जैनी वाणी की उपासना करते हैं)* - काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण ... उ& For Private and Personal Use Only
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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