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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जैनी वाचमुपास्महे काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण का मंगल पद्य www.kobatirth.org - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( हम जैनी वाणी की उपासना करते हैं ) * पारुल मांकड जैन आचार्यों ने संस्कृत काव्यशास्त्र में जो योगदान दिया है उनमें आचार्य हेमचन्द्र और उनके शिष्ययुगल रामचन्द्र और गुणचन्द्र सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं । 'जैनी वाचमुपास्महे' यह पद्यांश प्रायः सभी जैनाचार्यों के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में द्रष्टिगोचर होता है । परंतु प्रस्तुत शोधपत्र में हम हेमचन्द्रकृत 'काव्यानुशासन' (का.शा.) के और रामचन्द्र - गुणचन्द्रकृत 'नाट्यदर्पण' (ना.द.) के मंगल पद्य पर विचारविमर्श करना चाहते हैं । सर्वप्रथम हम हेमचन्द्र के मंगलपद्य में प्रयुक्त 'जैनी वाचमुपास्महे' पद्यांश का विचार करेगें । यथाअकृत्रिमस्वापदां परमार्थाभिधायिनीम् । सर्वभाषापरिणतां जैनी वाचमुपास्महे ॥ (का. शा. १ / १ ) स्वभावतः मधुर पदों से युक्त परम श्रेष्ठ अर्थ को कहनेवाली और सर्व भाषाओं में परिणत होनेवाली जैनी वाणी की हम उपासना करते हैं । + इसकी 'अलंकारचूडामणि' नामक वृत्ति में हेमचन्द्र इस प्रकार विवेचना करते हैं रागादिजेतारो जिनास्तेषामियं जैनी जिनोपज्ञा । अनेन कारणशुद्धयोपादेयतामाह । उच्यत इति वाक् वर्णपदवाक्यादिभावेन भाषाद्रव्यपरिणतिः । तामुपास्महे । उपासनं योगप्रणिधानम् । अकृत्रिमस्वादून्यनाहार्यमाधुर्याणि पदानि नामिकादीनि यस्यां सा । तथा स्वच्छस्वादुमृदुप्रभृतयो हि गुणमात्रवचना अपि दृश्यन्ते । अथवा अकृत्रिमाण्यसंस्कृतान्यत एव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्यामिति विग्रहः । ( वही पृ. १) 'जिन' का मतलब है जो राग इत्यादि (= द्वेष) को जीतनेवाले हैं वे । उनकी यह वाणी वह जैनी वाणी अर्थात् जिनों के द्वारा प्रयुक्त होनेवाली । अतः उस वाणी की कारणशुद्धि से ही उसकी ग्राह्यता बताते हुए आचार्य कहते हैं - जो बोली जाती है वह हुई वाणी, जो वर्ण (अक्षर), पद तथा वाक्य इत्यादि रूप में भाषा में परिणत होती है उसकी हम उपासना करते हैं । - 'उपासन' का अर्थ है योग में निर्दिष्ट ध्यान । अकृत्रिम स्वादु अर्थात् स्वभाव से ही मधुर नामादि अर्थ को दर्शाने वाले पद जिसमें हैं ऐसी वाणी । स्वच्छ, स्वादु, मृदु, कभी केवल गुणवाचक भी प्रतीत होते हैं । अथवा अकृत्रिम होने के कारण और अपरिष्कृत होने के कारण ही मीठे तथा अल्प बुद्धि वालों के लिए कोमल (सरल) लगनेवाले पद जिसमें हैं, ऐसा ( समास का ) विग्रह हो सकता है । २ आचार्य हेमचन्द्र आगे समझाते हुए कहते हैं कि यह (वाणी) गीत इत्यादि के समान है । परमार्थ ★ AIOC (जगन्नाथपूरी) २००२ डिसे. में स्वीकृत शोधपत्र | रीडर इन संस्कृत, एल. डी. इन्स्टिीट्यूट ऑफ इन्डोलोजी, अहमदाबाद जैनी वाचमुपास्महे - ( हम जैनी वाणी की उपासना करते हैं ) * - काव्यानुशासन और नाट्यदर्पण .. For Private and Personal Use Only 39
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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