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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेरहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ रासक्रीड़ा का सरस वर्णन है । इस प्रकरण में श्रृङ्गार की रसराजता स्वयमेव सिद्ध है। श्रीकृष्णचन्द्र निर्मल आकाश, शरतचन्द्र की चन्द्रिका और दिशाओं को सुरभित करनेवाली विकसित कुमुदिनी तथा वन-खण्डी को मुखर मधुकरों से मनोहर देखकर गोपियों के साथ रमण करने की इच्छा करते हैं उस समय बलराम के अभाव में ही श्रीकृष्ण स्त्रियों को प्रिय लगने वाले अत्यन्त मधुर एवं अस्फुट एवं मृदुल पर ऊँचे और धीमे स्वर से गाने लगे । उनकी उस सुरम्य गीतध्वनि को सुनकर गोपियाँ अपने-अपने घरों को छोड़कर तत्काल जहाँ कृष्ण थे वहाँ चली गयीं। फिर क्या ? कोई गोपी श्रीकृष्ण के स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगी तो कोई मन ही मन श्रीकृष्ण का स्मरण करने लगी । कोई तो हे कृष्ण, हे कृष्ण कहते हुए लज्जा से सङ्कचित हो गयी और कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरन्त उनके पास जा खड़ी हुई । इस उद्धरण में रति भाव दोनों के हृदय में समान रूप से उद्दीप्त है। कृष्ण जितनी ही तन्मयता से गोपियों से मिलना चाहते हैं उतनी ही अधीरता से गोपियाँ श्रीकृष्ण के अनुराग में आपादमस्तक अनुरञ्जित हैं । यहाँ आलम्बन तथा आश्रय का पारस्परिक सम्बन्ध विलक्षण है । एक बार कृष्ण आश्रय तो गोपियाँ आलम्बन, दूसरी बार गोपियाँ आश्रय तो श्रीकृष्ण आलम्बन । शरच्चन्द्र की शोभा की कमनीयता का कशलतापूर्वक वर्णन कौन कर सकता है ? यहाँ 'रति' स्थायी भाव को उद्दीप्त करने के लिए चारुचन्द्रमयी रजनी तथा गोवर्धन-क्षेत्र पर्याप्त हैं। गोपियों का कृष्ण के स्वर में स्वर मिलाकर गायन करना, लज्जा से सङ्कचित हो जाना तथा प्रेमोन्माद आदि संचारी भाव हैं । यह सम्पूर्ण अध्याय संयोग श्रृङ्गार का उत्कृष्ट निदर्शन है । इस श्रृङ्गार-वर्णन को भौतिक तथा आध्यात्मिक धरातल पर विस्तृत व्याख्यायित किया जा सकता है । _ विष्णुपुराण में अन्यत्र भी श्रृङ्गार-रस की स्थिति उपलब्ध होती है । यथा प्रथम अंश के अध्याय १५ के श्लोक सं० १८-२० में ऋषि कण्डु तथा अप्सरा प्रम्लोचा विषयक श्रृङ्गार-वर्णन संक्षिप्त होते हुए भी मर्मस्पर्शी है। पञ्चम अंश के बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या ०१ से १२ के मध्य कृष्ण तथा कुब्जा की प्रेमलीला में श्रृङ्गार रस का परिपाक हुआ है। उल्लेख्य है कि विष्णुपुराणकार श्रृङ्गार को काव्यशास्त्रीय रीति से सर्वाङ्गीण उपस्थित नहीं करते । प्रत्युत् प्रकरणानुसार श्रृङ्गार उपस्थित होकर परिवेश को रससिक्त बना देता है। २. हास्य रस : यह रस विकृत आकार, वेष, बोली, चेष्टा तथा व्यवहार आदि के वर्णन से उत्पन्न होता है । इसका स्थायी भाव हास, आलम्बन विकृत वेष, विकृत वचन वाला व्यक्ति तथा उद्दीपन अनुपयुक्त वचन वेष-भूषा आदि होते हैं । विष्णुपुराण के पञ्चम अंश के अध्याय ३८ के श्लोक सं० ८० के कथन के अनुसार रम्भा तथा तिलोत्तमा नामक वैदिकी अप्सराएँ आठ स्थानों से टेढ़े कुरूप अष्टावक्र को देख कर हँस पड़ती हैं । यहाँ रम्भा तथा तिलोत्तमा आश्रय हैं । अष्टावक्र की आठ स्थलों से टेढ़ी देह आलम्बन है तथा स्थायीभाव हास है ही । यद्यपि ऋषियों, महर्षियों या श्रेष्ठीजनों के विकृतिपूर्ण अङ्गों को जो प्रकृति ने उन्हें दे दिया है या जिसे स्वीकार करने को वे विवश हैं - देखकर हँसी करना उचित नहीं कहा जा सकता परन्तु एक बार प्राग्दर्शन में हँसी आ ही जाती है। विष्णुपुराण में रस-योजना : एक समीक्षात्मक विवेचन For Private and Personal Use Only
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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