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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. करुण रस : इसका स्थायी भाव शोक है। कोई मृत व्यक्ति, दीन दशा को प्राप्त व्यक्ति आलम्बन होता है । मृतक का दाह तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली वस्तुएँ उद्दीपन होती हैं । पृथ्वी पर गिर पड़ना तथा रुदन आदि अनुभव होते हैं । महाकवि भवभूति करुण रस पर इतने मन्त्रमुग्ध हैं कि वे करुण को ही एकमात्र 'रस' मानते हैं । आलोच्य महापुराण के पञ्चम अंश के अध्याय सात में श्लोक संख्या १४ से ३२ तक करुण रस का भावभरित उपस्थापन सुष्ठ रूपेण अवलोकनीय है। प्रकरण कृष्ण के कालीदह में कूदने का है । जब कालियनाग श्री कृष्ण को कुण्डलाकर होकर बलपूर्वक कस लेता है तब गोपगण सर्पफणों से पीड़ित कृष्ण को देखकर रोने लगते हैं । गोपगणों के वज्रपात सदृश अमङ्गल वाक्यों को सुनकर यशोदा तथा गोपियाँ व्याकुल होती हुई रुदन करती हुई कालीदह के तट पर पहुँचती हैं । सारा ण परम कारुणिक हो उठता है। यहाँ पर गोप तथा यशोदादि आश्रय तथा विपत्तिग्रस्त कृष्ण (प्रत्यक्ष रूप में) आलम्बन हैं । गोपादि के हृदय में अद्भूत भाव शोक ही स्थायी भाव है। कृष्ण का सर्पराज के चंगुल में फँसा होना तथा उनकी निरुपायता उद्दीपन है। गोपादि का रुदन अनुभव है। ४. रौद्र रस : इस रस का स्थाई भाव क्रोध तथा आलम्बन अपकार करने वाला व्यक्ति तथा शत्रु आदि होते हैं । शत्रु के द्वारा किये अपकार आदि इस रस में उद्दीपन का कार्य करते हैं । शस्त्र को बार-बार चमकाना, बड़ी-बड़ी डींगे मारना तथा त्योरियाँ चढ़ाना आदि अनुभाव होते हैं । विष्णुपुराण के प्रथम अंश के तेरहवें अध्याय के श्लोक संख्या ६८-६९ में रौद्र रस है। अराजकता से व्याकुल प्रजा महाराज पृथु के पास जाती है और कहती है कि 'हे प्रजापति नपश्रेष्ठ ! अराजकता के समय पथ्वी ने समस्त औषधियाँ अपने में लीन कर ली हैं। अत: आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है। विधाता ने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है अतः क्षुधारूप महारोग से पीड़ित हम प्रजाजनों को आप जीवन रूप औषधि दीजिए । यह सुनकर महाराज पृथु अपना दिव्य धनुष और बाण लेकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथ्वी के पीछे दौड़ पड़े ११ । प्रकृत प्रकरण में समस्त औषधियों को अपने में लीन कर लेने के कारण शत्रु रूप पृथ्वी आलम्बन है। पृथ्वी द्वारा समस्त औषधियों को अपने में लीन कर लेना तथा प्रजाजन की क्षुब्धता उद्दीपन भाव है । राजा पृथु का क्रोधावेश में दिव्य धनुष बाण को लेकर चल पड़ना अनुभाव है । राजा के चित्त में उत्पन्न क्रोध स्थायी भाव है। प्रथम अंश अध्याय १५ के श्लोक सं० ४१ कण्डु मुनि के तथा चतुर्थ अंश अध्याय ६ के श्लोक सं० ५७ में पुरुरवा के क्रोध प्रकरण में रौद्ररस की स्थिति सुदृढ़ है । ५. वीर रस : इस रस में आलम्बन शत्रु होता है जिस पर विजय प्राप्त करना होता है । शत्रु का प्रलाप, शौर्य तथा युद्ध का तुमुल कोलाहल आदि इस रस में उद्दीपन का कार्य करते हैं । हथियारों का चलाना नेत्रों का आरक्त होना तथा शरीर में रोंगटों का खड़ा हो जाना आदि अनुभव है । इस रस का स्थायी भाव उत्साह होता है। विवेच्य पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय दस के श्लोक संख्या ३४-३५ में वीर रस की स्थिति है। महाबलवान बलराम् प्रलम्बासुर (राक्षस - जिसने बलराम का अपहरण कर लिया था) ૨૬ सामीप्य:मोटो. २००६-भार्थ, २००७ For Private and Personal Use Only
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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