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विष्णुपुराण में रस-योजना : एक समीक्षात्मक विवेचन
ज्ञानप्रकाश दुबे अष्टादश महापुराणों में विष्णुपुराण का महत्त्वपूर्ण स्थान है । विष्णुपुराण पर पुराण-लक्षण सर्वथा घटित होते हैं । यह महापुराण ज्ञान-विज्ञान का आकर ग्रन्थ है । भारतीय मनीषा के उत्तम वरदान के रूप में सिद्ध प्रसिद्ध विष्णुपुराण भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश तथा श्रीकृष्णचरित्र आदि प्रकरणों से तो सुभूषित है ही, साथ में उसमें काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का प्राचुर्य भी है। विष्णुपुराण वैष्णव भक्ति का अद्भुत आख्यान है । यद्यपि इस महापुराण में भक्ति-रस की प्रधानता है तथा अन्य रसों की भी समुचित समन्वित दर्शनीय है। विष्णुपुराण धार्मिक ग्रन्थ अवश्य है परन्तु उसमें सहदयों के प्रीति-उतापदक काव्य तत्त्व की कथमपि उपेक्षा नहीं है।
काव्य में रस की महत्ता अनपेक्षणीय है। रसप्रधान काव्य नीरस शास्त्रीय उपदेशों को मधर बना देता है जिससे शास्त्रीय नीरसता भी सरस हो जाती है। आचार्य भामह ने ठीक ही कहा है कि 'काव्य को मधुर रस में मिलाकर शास्त्र का भी उपभोग होता है। पहले मधु को चखने वाले कड़वी दवा को भी पी लेते हैं । काव्यशास्त्रियों ने काव्य की विभिन्न परिभाषायें दी हैं परन्तु विश्वनाथ कविराज कहते हैं कि 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है २ ।' परिमल पद्म लिखते हैं कि 'उस काव्य को नमस्कार है, जिसकी बूंद मात्र से भी हृदय के सिञ्चित होने पर भी सत्पुरुष का मुख सुवर्णता (कान्तियुक्त अथवा सुन्दर वचनों से युक्त) को प्राप्त हो जाता है तथा असज्जन की दुर्वर्णता (कान्तिहीन अथवा अपशब्दों से युक्त) को । रस क्या है ? एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है । रस की अनेक कोणीय समीक्षा-विवेचना अनेक काव्यशास्त्रीय पुस्तकों में उपलब्ध है । तैत्तरीयोपनिषद का विचार है कि 'वही ब्रह्म है । इस रस को प्राप्त करके ही जीवात्मा आनन्द युक्त होता है ।' दर्शन-अध्यात्म का जो मोक्ष है वही काव्य का रस है । कवि की रसात्मक वाणी का ही सहृदय समादर करते हैं । पाल्यकीर्ति की मान्यता है कि किसी वस्तु में रस हो या न हो किन्तु कवि की वाणी में रस होना चाहिये । भारतीय चिन्तन-परम्परा तो रस की महत्ता की इयत्ता का समादर करते हुए यहाँ तक कहती है कि 'संसार रूपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत तुल्य हैं - काव्यामृत के रस का आस्वाद और सज्जनों की सङ्गति ।' विष्णुपुराण में रस-स्वरुप भगवान विष्णु हैं । रस-सिन्धु विष्णु का गुणगान है। विष्णुपुराणकार की वाणी रस-सिक्त है । विष्णुपुराण का काव्य रसात्मक वाक्य की कोटि में गिना जा सकता है। १. श्रृङ्गार रस :
इस रस का स्थाई भाव रति, आलम्बन नायक या नायिका, उद्दीपन चन्द्र-चाँदनी, वन, उपवन, अनुरागपूर्ण परस्पर एकदूसरे को देखना, कटाक्ष करना आदि; अनुभाव, उग्रता, मरण तथा आलस्यादि व्यभिचारी भाव हैं । यह सम्भोग तथा विप्रयोग दो प्रकार का होता है । विष्णुपुराण के पञ्चम अंश के
★ शोधार्थिनी, सरस्वती शिशुमंदिर मार्ग, मु. पहेलनगर, पो. कादीपुर, जि. सुलतानपुर (उ.प्र.) २२८१४५
सामीप्य : मोटी. २००६-भार्थ, २००७
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