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तथा केशव हैं। वे नमस्करणीय हैं, वन्दनीय है. अभिनन्दनीय तथा पूजनीय हैं। उनकी महत्ता की इयत्ता का गुणगान कोई नहीं कर सकता है । उक्त स्तुति में शब्दों की व्युत्पत्ति पर विशेष ध्यान देने योग्य है। अर्थपरक व्युत्पत्ति करते हुए नाम का विधान व्युत्पत्ति - जिज्ञासुओं के लिए सर्वथा प्रीतिकर है ।
विष्णु पर्व के एक सौ पचीसवें अध्याय में ऋषि मार्कण्डेय ने हरिहरात्मक स्तोत्र का वर्णन किया है (श्लोक सं० २९ से ५८ तक) इस प्रकरण में ऋषि मार्कण्डेय ने विष्णु तथा शङ्कर को एकरूप मानते हुए इन दोनों की स्तुति की है। इस सन्दर्भ में विष्णु के अनेक स्वरूपों को देखा जा सकता है। ऋषिकथन का सार-संक्षेप है कि शिव ही विष्णु रूप हैं तथा विष्णु ही शिव रूप हैं । जो विष्णु है, वे ही रुद्र हैं, और जो रुद्र है वे ही ब्रह्मा हैं । इनका मूल रूप तो एक ही है परन्तु ये कार्यभेद से रुद्र, विष्णु
और ब्रह्मा तीन देवता कहलाते हैं । जिस प्रकार जल में डाला हुआ जल जलरूप हो जाता है, उसी प्रकार रुद्रदेव में प्रविष्ट भगवान विष्णु रुद्रमय हो जाते हैं१९ । जिस प्रकार अग्नि में प्रविष्ट हुई अग्नि, अग्निरुप हो जाती है, उसी प्रकार विष्णु में प्रविष्ट हुये रुद्रदेव विष्णुरुप हो जाते हैं । विष्णु तथा महेश संसार की सृष्टि और पालन करते हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की सृष्टि और पालन करते हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश मेघरूप से जल की वर्षा करते हैं, सूर्यरूप से प्रकाशित होते हैं तथा वायुरूप से सर्वत्र गतिशील होते हैं । रुद्र के परमदेव विष्णु हैं और विष्णु के परमदेव शिव हैं । एक ही परमेश्वर दो रूपों में व्यक्त होकर सदा समस्त जगत में विचरते हैं । भगवान् शङ्कर के बिना विष्णु नहीं है और विष्णु के बिना शिव नहीं हैं । रुद्र तथा विष्णु पुराकाल से एकता को प्राप्त हैं । त्रिनेत्रधारी अभिवादनीय हैं तथा कमलोचन कृष्ण (विष्णु) प्रणम्य हैं । हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले भगवान शङ्कर तथा एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करने वाले श्री हरि प्रणम्य हैं । श्मशानवासी हर तथा समुद्रनिवासी हरि वृषभवाहन हर तथा गरुड़वाहन हरि वन्दनीय हैं । दक्षयज्ञ के विध्वंसक तथा पर्वत निवासी शिव, बलि को बाँधने वाले तथा समुद्र वासी विष्णु प्रणम्य हैं। भगवान विष्णु तथा शङ्कर सर्वथा नमस्य हैं । सामवेद इन दोनों देवों की वन्दना करते हैं । उक्त विष्णु विषयक स्तुतियों के समीक्षात्मक परिशीलन से स्पष्ट है कि विष्णु के अनेक नाम हैं । उनसे मोक्ष विषयक तथा भौतिक सम्पदा विषयक वरदान पाने की अपेक्षा साधक को रहती है। वे साधक की मनोकामना पूर्ण करते हैं । विष्णु विषयक अनेक स्तुतियों में उन्हें नमस्कार किया गया हैं। उनकी स्तुति गद्यात्मक भी है। आलोच्य पुराण की विष्णु स्तुतियों में वैदिक विष्णु (परमेष्ठी) की छाया साफ झलकती है। पुरुषसक्त मन्त्र में कथित सहस्रात्मक पुरुष ही विष्ण हैं । उन्हीं से यज्ञ की उत्पत्ति हुई । इन स्तुतियों में विष्णु के लिए प्रयुक्त शब्दों में अर्थबोध है जो मानसिक तोषण तो करते ही हैं साधक को साधना की सिद्धि की अवस्था में पहुँचाने में सहायक भी हैं । वस्तुतः ये अद्भुत शब्द-सङ्ग्रह हैं जो प्राचीन भारतीय मनीषा की चिन्तन विषयक विविधता के परिचायक हैं । ये स्तुतियाँ उद्घोष करती हैं कि ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश एक ही शक्ति के त्रिविध रूप हैं । हरि तथा हर दो भिन्न तत्त्व नहीं हैं । प्रत्युत् एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । विभिन्नता में एकता का उद्भव आख्यान हैं । भिन्नभिन्न रूपों में स्थित जीवों-पदार्थों में विष्णु तत्त्व ही व्याप्त है। आज का मानव अशान्त है, वह उदारीकरण, वैश्वीकरण, आधुनिकीकरण तथा यन्त्रीकरण के दुश्चक्रों में पिस रहा है। उसे मानसिक शान्ति प्रदान करने में ये स्तुतियाँ सिद्ध मन्त्रवत् हैं तथा मतमतान्तरगत विभिन्नता को दूर करने में ये स्तवन अति सहायक ૨૨
सामीप्य : मोटो. २००६ - मार्य, २००७
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