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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घण्टाकर्ण ८२वें अध्याय में कृष्ण का विष्णुरूप में श्लोक संख्या ३ से ४० तक स्तुति करते हुए उनके विभिन्न रूपों का तथा उनकी कृपालुता का विस्तार से वर्णन करता है । तदनुसार कृष्ण ही विष्णु हैं, ये ही चक्रधारी शार्ङ्गधर धनुष और बाण धारण करने वाले हैं। ये ही विष्णु, जिष्णु, जगन्नाथ, पुराणपुरुष, पुरुषोत्तम, विश्वात्मा, विश्वकर्ता तथा सनातन परमात्मा हैं । विष्णु ने वाराह रूप धारण करके पृथ्वी को जल से बाहर निकाला । दानव बलि को बलपूर्वक बाँधकर इन्हीं वामन रूपी श्री हरिने देवराज इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य समर्पित कर दिया था । नृसिंह रूप में विष्णु ने दानवों का संहार किया । विष्णु ने आदिकाल में एक हाथ से मन्दराचल पर्वत धारण किया था जिन्होंने मधु तथा कैटभ नामक दो महाअसुरों को मारा था । विष्णु ही कालान्तर में परशुराम, रघुकल में उत्पन्न राम तथा सम्प्रति कृष्ण रूप में विराजमान हैं। भविष्यत् पर्व के अठासीवें अध्याय में भगवान् शङ्कर श्रीकृष्ण को विष्णु स्वरूप मानकर स्तुति करते हैं । तदनुसार कृष्ण स्वयं नित्य स्वरूप भगवान विष्णु हैं । सर्वव्यापी जनार्दन जगत् के कारण रूप जो प्रधान (प्रकृति) हैं । उसके तीन भेद हैं - सत्त्व, रज तथा तम । इस त्रिगुणीमयी प्रकृति से ही यह विश्व ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ है । इसका कारण भूत जो सांख्य प्रकृति हैं उसे विद्वान् पुरुष विष्णु का स्वरुप बतलाते हैं जो परिणाम को प्राप्त होकर जगत् के अधिष्ठाता के रूप में स्थित हैं । महत् तत्त्व से महान (अहङ्कार) प्रकट हुआ उस महत् तत्त्व के परिणाम विष्णु हैं । इस जगत के पञ्चमहाभूत पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तथा अनल विष्णु ही हैं। भगवान विष्णु ही कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों को सञ्चालित करते हैं । जब विष्णु रजोगुण से संयुक्त होते हैं तब सृष्टि करते हैं, जब सत्वगुण से संयुक्त होते हैं तो तीनों लोकों का पालन करते हैं और जब तमोगुण युक्त होते हैं तब जगत का संहार करते हैं । कृष्ण सृष्टिकाल में ब्रह्मा, पालनकाल में विष्णु तथा संहारकाल में रुद्र नाम धारण कर लेते हैं । उन्हीं से जो हुआ है और जो होने वाला है, वह यह सम्पूर्ण जगत विष्णुमय है । विराट और सम्राट् की उत्पत्ति जनार्दन से ही हुई है । विष्णु के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई है। उन्हीं के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, मुख से इन्द्र तथा अग्नि, प्राण से वायुदेव, नाभि से अन्तरिक्ष, मस्तक से धुलोक, पैरों से पृथ्वी, कानों से दिशायें उत्पन्न हुई हैं । केशव तो सम्पूर्ण लोकों में सर्वत्र व्याप्त होकर विराजमान हैं। उनमें "विष' धातु के व्याप्ति रूप अर्थ का दर्शन होने से वे विष्णु नाम धारण करते हैं । वे भूत, वर्तमान तथा भविष्य के स्वामी हैं । विष्णु प्राणियों के पाप ताप को हरते हैं अतएव उन्हें हरि कहा गया है । वे सदा सबका 'शम' (कल्याण) करते हैं तवएव शङ्कर कहे जाते हैं । विष्णु बृहत् तथा वर्धनशील हैं अतएव वे ब्रह्म हैं । 'मा' विद्या को कहते है । 'धव' का आशय स्वामी होता है । यतः विष्णु विद्या के स्वामी हैं अतएव माधव कहे जाते हैं । 'गौ' का आशय वाणी है । 'विज्ञ' का तात्पर्य जानकार होता है । यतः विष्णु वाणी के विज्ञ हैं । अतएव उन्हें गोविन्द कहा जाता है। विष्णु अक्षरों में अकार (आदिवर्ण) हैं । वर्गों में आश्रित रहने वाले स्फोट हैं । वे वृक्षों में पीपल हैं। समस्त लोकों के गरु ब्रह्मा हैं। श्रेष्ठ पर्वतों में मेरु पर्वत और देवर्षियों में नारद हैं। विष्ण समस्त भूतों के आदि, मध्य और अन्त हैं । उन्हीं से विष्णु का प्रादुर्भाव हुआ है । अन्ततः सारा जगत उन्हीं में लीन हो जाता है । विष्णु ही नित्य-निरन्तर ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं । विष्णु ही माधव हरिवंशपुराण की विष्णुविषयक स्तुतियों का समीक्षात्मक परिशीलन ૨૧ For Private and Personal Use Only
SR No.535841
Book TitleSamipya 2006 Vol 23 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Mehta, R T Savalia
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year2006
Total Pages110
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size9 MB
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