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શ્રી આત્માનંદ પ્રકાશ भी इसी तरह सुरक्षित व सुव्यवस्थित करनेका प्रयत्न करते तो हमारे पूर्वजोंकी ख्याति इस प्रकार नष्ट न होती । विद्वतजगतसे आपको सदा सम्मान मिलता रहा है। गुजरात साहित्य परिषदके इतिहास विभाग एवं ओरिएण्टल कोन्फ्रेन्सके प्राकृत विभागके आप अध्यक्ष चुने गए थे। अमेरिकाकी एक संस्थाने भी आपको सम्मानित किया था। ___ मुनिश्रीकी अखण्ड ज्ञानोपासना दूसरोंके लिए भी बडी प्रेरणादाई रही है। गुजरातमें आपके अनेकों विद्वान शिष्य हैं, जो आपके कार्यमें भी सहयोग देते रहे हैं और स्वयं अच्छे सम्पादक और पण्डित बन गए । आशा है, मुनिश्रीने जो ज्ञानयज्ञ चालू किया उसे निरन्तर जारी रखा जाएगा। __ मुनिश्रीकी अनेक विशेषताओंमें से कुछका उल्लेख यहाँ पर देना आवश्यक है।
इतने बडे विद्वान होने पर भी अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था। बच्चेसे लेकर बूढों सभीसे बडे प्रेमपूर्वक मिलते । सभीकी बातोंको ध्यानसे सुनकर उन्हें पथप्रदर्शन करते और सहयोग देते । सदा हंसमुख और प्रसन्न चेहरा । इतनी व्यस्तताके वावजूद भी वे अपने कार्योंको छोडकर भी आए हुए व्यक्ति का काम पहले कर देते । दिनभर उनके पास श्रावक-श्राविकाओं, नवयुवकों व विद्वानोंका तांता लगा रहता। फलतः वे ग्रन्थसंपादन-लेखनका कार्य रातको व प्रातः करते थे; आए हुए व्यक्तिको किसीको भी नाराज नहीं करते । कहते थे कि अपना काम तो चलता ही रहेगा, इनको भी सन्तोष देना ही चाहिए।
जैसलमेरमें मैं उनके साथ करीब बीस दिन रहा । हर समय उन्हें कार्यमें संलग्न देखकर कई बातें पूछनेकी इच्छा होने पर भी मुझे संकोच होता था । एक दिन जब मैंने उनसे अपने मनोभाव व्यक्त किए तो उन्होंने कहा कि आप जैसे व्यक्तियोंके लिए ही तो मैं रातदिन, ग्रन्थसंशोधन आदिका कार्य कर रहा हूँ यह तो जीवनभर चलता ही रहेगा । इसलिए आप तनिक भी संकोच न करके जिस समय जो पूछना हो मेरे पास आ जाया करें। और तबसे मैंने ज्ञानचर्चाका लाभ उठाना प्रारम्भ कर दिया और बीकानेर पधारनेका भी निमन्त्रण दिया, जो उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया।
प्रायः विद्वान लोग अपने श्रमका दूसरों द्वारा उपयोगे होते देखकर खिन्न हो जाते हैं। परंतु मुनिश्री इसके सर्वथा अपवाद थे। बहुत परिश्रमसे संशोधित किए हुए ग्रन्थोंको भी वे दूसरों के उपयोगके लिए सहज ही दे देते थे। इस तरह देश-विदेशके अनेकों विद्वानोंको साहित्य-साधनामें उन्होंने अपूर्व योग दिया है। गच्छ-सम्प्रदायकी संकुचित भावनासे आप ऊँचे उठ चुके थे। जो भी आया, सभी को सहयोग दिया । सौजन्य, उदारता एवं प्रेमकी साक्षात् मूर्ति थे।
पहेले-पहेले उनको संग्रहणीकी बीमारी भी काफी वर्षों तक रही, फिर भी वे अपने काममें जुटे ही रहते । इधर स्वास्थ्य, वृद्ध होनेपर भी, काफी ठीक दिखाई दे रहा था । ७५ वर्षकी आयुमें भी ये युवकोचित उत्साह और श्रम करते रहते । कुछ महीने पहले मैं बम्बई वालकेश्वर जैन मंदिरमें उनके दर्शनार्थ गया तो कहा कि देखिए नाहटाजी, यह “पयन्ना" का सम्पादनकार्य पूरा किया है। उसके बाद अभी मार्चमें गया तो उन्हें ज्वर आया हुआ था। फिर भी बडी प्रसन्नतासे बातचीत की। उनकी सेवामें रहनेवाला लक्ष्मण भोजक वहीं पास बैठा हुआ था। उसने कहा, अब अहमदाबाद जल्दी ही पूज्यश्री को पहुँचना है। फिर भी आपरेशन हुआ, वह भी सफल रहा। पर विधिको बम्बईसे बिहार करना मंजूर नहीं था। अतः दिनांक १४ जूनको रात्रिके साढे आठ बजे समाधिपूर्वक आपका यहीं स्वर्गवास हो गया ।
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