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શ્રી આત્માનંદ પ્રકાશ . गुजरातके कपडवंज नामक स्थानमें संवत् १९५२ के कार्ती सुदी ५ (ज्ञानपंचमी) को आपका जन्म हुआ। आपका नाम मणिलाल रखा गया। आपके पिताका नाम डाह्याभाई व माताका नाम माणिक वहन था, जो आगे चलकर जैन साध्वी हो गई और अपने पुत्रको केवल १३ वर्षकी आयुमें संयम -चारित्र और ज्ञानोपासनाके मार्गमें अग्रसर कर दिया । ६२ वर्ष तक मुनिश्रीने जैन साधुकी चर्या में रहकर अपनी आत्माका कल्याण करते हुए हजारोंको धर्म-अध्यात्मकी सत्प्रेरणा दी।
कहा जाता है कि जब आप केवल दो-चार महीनेके ही थे आपके पिता व्यापारके लिए बम्बई गए हुए थे और माता कपड़े धोने के लिए तालाब गई हुई थी; पीछेसे जिस मोहल्ले में आपका घर था, उसमें आग लग गई और आपका घर भी उसकी लपेटमें आ गया । छोटासा बालक एकाकी घरमें पालनेपर झूल रहा था। चारों ओर तीव्र गतिसे आग फैल रही थी। वालकका रोना सुनकर एक मुसलमान बोहरेने इनके घरमें प्रवेश करके किसी तरहसे इनको निकाला और अपने घर पर ले जाकर उनकी रक्षा की। इधर जब माताको आग लगनके समाचार मिले तो दौडी हुई आई । अपने वच्चेके लिए किस माँका दिल उमड नहीं पडता ? आकर देखा तो घर जल चुका था । अतः बच्चेकी जीते रहनेकी कोई आशा नहीं रह गई थी । मार्मिक दुःख हुआ, पर क्या किया जाए ? दूसरे दिन बालकके रक्षक बोहरेने उसके माता-पिताका पता लगाते हुए इनकी माँको लाकर सुपूर्द किया तो उसके आनन्दका पार नहीं रहा । कहते है :-'जाको राखे साईया, बाल न बाँका हो' जिसकी आयु प्रबल है उसे बडीसे बडी विपत्ति भी जीवनरोध नहीं कर सकती । इस बालकसे धर्म और देशका बहुत बडा कार्य होनेवाला था। इसलिए बडी विपत्ति आने पर भी रक्षा हो गई।
पिताश्रीको जब यह समाचार मिला, तो वे बम्बईसे आए और बच्चे एवं माताको बम्बई ले गए । योग्य उम्र होने पर इनकी पढ़ाई प्रारम्भ हुई। पर थोड़े वर्षों बाद ही इनके पिताजीका निधन हो गया। माँको बडी चिन्ता हुई और साथ ही वैरागीकी भावना भी उदित हुई । उनको जैन साध्वीकी दीक्षा लेनेकी भावना हो गई, पर बच्चेके भविष्यका प्रश्न सामने था। पुण्योदयसे वालक भी दीक्षा लेनेको तैयार हो गया। शत्रुजय महातीर्थकी यात्रा करके वे बडौदामें प्रवर्तक कान्तिविजयजीके पास पहुँचे । बालक दीक्षित होकर कांतिविजयजीके शिष्य चतुरविजयजीके शिष्य बने
और दो दिन बाद ही उनकी माताने भी साध्विओंके पास जाकर दीक्षा ले ली । उनका दीक्षानाम रत्नश्री था। ५७ वर्ष तक साधुधर्म पालन कर सं. २०२२ में वे स्वर्ग सिधारे । बालक मणिलालका दीक्षा नाम रखा गया--पुण्यविजय ।
दीक्षाके बाद प्रगुरु कांतिविजयजी और गुरु श्री चतुरविजयजीने आपके अध्ययनकी बडी अच्छी व्यवस्था कर दी । अनेक विषयोंके अधिकारी विद्वानोंसे आपको शिक्षा दिलाई गई और साथ ही साथ . मुनिचर्या और अपने गुरुओंकी ज्ञानोपासनाकी शिक्षा स्वत: मिलती गई। मुनि श्री चतुरविजयजीने अनेकों ग्रन्थोंका सम्पादन व संशोधन किया । ज्ञानभण्डारोंकी हस्तलिखित प्रतियाँको देखने, उनकी लिपिको पढ़ने और विषयको समझने में आपकी रुचि जाग्रत हुई । अतः थोड़े ही वर्षों में आप भी अपने गुरुश्रीके कार्यों में सहयोग देने लगे और योग्य विद्वान बन गए।
संवत् १८८४ में लीम्बडीके जैन ज्ञानभण्डारकी सूची तैयार करने में अपने गुरु श्री चतुरविजयजीको आपने विशेष सहयोग दिया और इसकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना भी आपने लिखी । पाटण आदिके
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