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શ્રી આત્માનંદ પ્રકાશ मिलना, जगह-जगह मिनिस्टरों की उपस्थिति में सार्वजनिक प्रवचनों का आयोजन करना, प्रत्येक संस्थाओं के चलाने आदि के लिए प्रेरणा करना आदि कार्यकलाप ऐसे है, जिनसे साधु की मस्ती और निरिंचतता (समय और आजीविका भी) भंग हो जाती है.
लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि आगमप्रभारक स्व. पुण्यविजयजी महाराज, इतने प्रसिद्ध और आगमज्ञ साधु होते हुए भी, इन प्रपंचों से काफी दूर थे. वे अपनी ज्ञानसाधना में रत रहते थे. प्रसिद्धि और आडम्बर से कोसों दूर रह कर वे अपनी ज्ञानसाधना अहर्निश करते रहते थे.
सन् १९५६ की बात है. मैं और मेरे बडे गुरुभ्राता पू० मुनि श्री डुगरसिंहजी महाराज सर्वधर्मसमन्वयी धर्ममय समाजरचना के प्रयोगकार मुनि श्री संतबालजी महाराज के दर्शन करने, उनको प्रत्यक्ष मिलने गए और उनके द्वारा प्रेरित प्रयोग को प्रत्यक्ष देखने के हेतु गुजरात पहुंचे थे. इस सिलसिले में हम अहमदाबाद पहुंचे थे, अहमदाबाद में हम प्रसिद्ध-प्रसिद्ध व्यक्तियों और विचारकों से मिल रहे थे. एक दिन पू० आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय महाराज से भी मिले. उस समय वे लूणसावाडा के उपाश्रय में विराजमान थे. हम दोनों उनके सान्निध्य में पहुंचे, उनके बन्दन-दर्शन किए, उन्हें बन्दना की. वे बडी ही नम्रता और मृदुता से मिले. उन्होंने, हमारे पास आसन होते हुए, बैठने के लिए अपना आसन दिया. बड़े ही प्रसन्न और मृदु स्वभाव देख कर हमें आश्चर्य हुआ. फिर उन्होंने अपनी धीर गम्भीर वाणी में हमसे आगमन का प्रयोजन पूछा. हमने अपने गुजरात आगमन का हेतु और साधुजीवन में नये मोड लेने का जिक्र किया. उन्होंने हमारी बात बडी ही शान्ति और धैर्य से सुनी
और उस पर अपनी सहमति प्रकट करते हुए कहा-"आपका विचार बहुत अच्छा है. में आपके विचारों का अभिनंदन करता हूँ. वास्तव में साधुसमाज में जो निष्क्रियता छा गई है, उसे दूर करने के लिए आपने उत्तम मार्ग ग्रहण करने का विचार किया है." हमने उनसे कहा-"महाराजश्री ! हम तो आपका आशीर्वाद लेने आए हैं. आप आगमों के धुरंधर विद्वान हैं, साथ ही समयज्ञ भी हैं, अतः कृपा करके हमें इस विषय में मार्गदर्शन दीजिए.” उन्होंने अपनी नम्रता प्रगट करते हुए कहा-“देखो मुनिजी ! मैं इस समय ज्ञानयोग की साधना में रत हूँ, आप जिस सुमार्ग पर जाना चाहते हैं वह एक नया मोड है, कर्मयोग का पथ है, मुझे उसका विशेष अनुभव नहीं है. परंतु आपसे मेरी एक नम्र विनती है कि आप इस मार्ग पर अपनी साधुमर्यादा में रहते हुए बेशक चलिए. परन्तु इसमें कोई भी छूट लेना चाहें तो संघ के सामने अपनी बात नम्रता से रख कर ले; शास्त्रों की दुहाई देकर किसी चीज को खींचतान कर सिद्ध करने की कोशिश न करें. इससे आपकी संघ के प्रति कृतज्ञता की भावना भी बनी रहेगी और संघ भी आपके विकास और समय की रक्षा का पूरा ध्यान रखेगा." हमने उनकी हितशिक्षा शिरोधार्य की और उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा ही करने का विचार हे.
वे अपने जीवन में बडे कर्मठ थे, जरा भी प्रमाद नहीं करते थे. आगमों के दोहन करने और उनका ठीक ढंग से सम्पादन करने में आप सिद्धहस्त थे. प्राचीन भण्डारों की आगम-साहित्य-निधि की सुरक्षा करने में आपने बडा पुरुषार्थ किया है. ऐसे दिवंगत पुण्यात्मा के प्रति में श्रद्धांजलि अर्पित करता हु. “विजयानन्द" मासिक (श्री आत्मानन्द जैन महासभा, पंजाब का मुखपत्र)
अगस्त, १९७२
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