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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पई ] શ્રી આત્માનંદુ પ્રકાશ શ્રમણુ ન હેાય તેા પછી ખીજો કાણુ હેાય ? અને છતાં આપણા સમાજમાં એવા સાધુ પડયા છે જે તેમને શ્રમણુ માનવા પણ તૈયાર ન હતા! તેમનાં દન કરવામાં તેમને મિથ્યાત્વ લાગી જવાના ડર હતા ! આ જૈન ધર્માંના હાસનુ` કારણ ન હેાય તા ખીજુ` શુ` હાય? ખાદ્ય આડંબર વધારા અને સાચા સાધુમાં ખપા —આ આજે સાધુતાનું ધારણ થયું છે. અને છતાં એ ધેારણના અસ્વીકાર કરી, સદૈવ માન-અપમાનની પરવા કર્યા વિના, પોતાની રીતે સાધુજીવન ગાળીને, પૂ. મુનિશ્રી પેાતાનુ જીવન ધન્ય કરી ગયા છે અને સાધુતા શુ હેાઈ શકે તેનુ નિદર્શન પણ કરી ગયા છે. તે આપણા માટે સદૈવ ધ્રુવતારક બની રહે એ જ અભ્યર્થના. प्रमुद्धलवन" पाक्षिक, भूमध; ता. १-७-१८७१ "" पुण्यलोक श्री पुण्यविजयजी महाराज श्री शान्तिलाल बनमाली सेठ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * गत वर्ष जब मैं बम्बई गया था तब भारत के अग्रगण्य पुरातत्वविद् मुनि श्री पुण्यविजयजी के दर्शन करने का एवं उनकी ज्ञान-गरिमा का रसास्वाद लेने का शुभावसर मिला था । इस ज्ञानतपस्वी का दर्शन करके और उनके तपःपूत स्वाध्याय-रत जीवन का अन्तः दर्शन करके मैं वास्तव में धन्य-धन्य हो गया । इतने ज्ञान - वृद्ध होते हुए भी कितने सरल, सौम्य एवं स्वाध्यायरत थे । जैन तत्त्वों के अमूल्य ज्ञान भण्डार में छिपे हुए रत्नों को बाहर निकालने का शोधन कार्य वे वर्षों से कर रहे थे । उन्होंने स्वाध्याय, शोध कार्य एवं अनुसंधान कार्य करने में अपना जीवन सर्वस्व समर्पित कर दिया था और artery में ऐसे तल्लीन हो गये थे कि दिन-रात स्वाध्याय, संशोधन एवं अनुसंधान यह उनका जीवन व्यवसाय ही बन गया था । उन्होंने अपूर्व संशोधनकार्य करके जो जैन शासन की सेवा की है भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में सदा के लिए अंकित रहेगी। हमारे प्राचीन ज्ञानभाण्डार तालों में जकड़े हुए थे, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में वह प्राचीन साहित्य बिखरा हुआ पडा था । उसका उद्घाटन करके प्रत्येक हस्तलिखित पत्रको व्यवस्थित करके एवं प्राचीन जैन साहित्य के ग्रथ-रत्नों का संपादन करके जैन साहित्य की जो सेवा की है वह यावच्चन्द्रदिवाकरौ चिरस्थायी रहेगी । पुण्यलोक श्री पुण्यविजयजी म० की पुण्य स्मृति युग-युगान्तर तक अपने कार्यकलापों द्वारा चिरस्थायी हो गई है । आवश्यकता है उनके प्रशस्त पथ पर चलने वाले विद्वानों की । पू० मुनिजी ने अनेक विद्वानों को इस पथ पर चलने की न केवल प्रेरणा ही दी है, अपितु, अपने प्रगाढ पांडित्य के साथ वात्सल्य का परिचय देकर, विद्वानों को, जिज्ञासुओं को इस पथ पर चलने का प्रबल प्रोत्साहन भी दिया है । पुण्यश्लोक पुण्यविजयजी म० का पुण्य स्मारक यही होगा कि उनके अधूरे कार्य को पूरा किया जाय । जैन संघ का यह पवित्र कर्तव्य है कि वह उनके अधूरे खप्नों को, एवं कार्य-कलापों को मूर्त स्वरूप देने का सक्रिय प्रयत्न करे । यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी । स्वर्गीय पुण्यात्मा को चिरशान्ति प्राप्त हो, यही प्रार्थना है । " जैन प्रकाश" साप्ताहिक, नई दिल्ही; ता. १-७-७१ For Private And Personal Use Only
SR No.531809
Book TitleAtmanand Prakash Pustak 071 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Atmanand Sabha Bhavnagar
PublisherJain Atmanand Sabha Bhavnagar
Publication Year1973
Total Pages249
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Atmanand Prakash, & India
File Size94 MB
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