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મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજી શ્રદ્ધાંજલિ-વિશેષાંક
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मुनि पुण्य – मैंने आपके दशवैकालिक का दूसरा भाग देखा है । आपने उसमें बहुत परिश्रम किया है । मुनि नथ -- अभी-अभी ५-६ ग्रन्थ और प्रकाशित हुए हैं। संभव है, श्रीचन्दजी रामपुरिया ने आपको दिखाए होंगे?
मुनि पुण्य - मैं मानता हूं कि आज चारों ओर से जैन साहित्य संबंधी कुछ न कुछ कार्य हो रहा है। अनेक संस्थान इस और कार्यशील हैं। यह शुभ बात है ।
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तदनन्तर उन्होंने हमें कई प्रतियाँ दिखाते हुए कहा, प्राचीन प्रतियों के लेखन में कितने अनर्थ हुए हैं, यह आप लोग जानते हैं । सारे लिपिकर्ता विद्वान नहीं होते थे, अतः जब उन्हें कोई शब्द समझ में नहीं आता तो वे मनगढन्त शब्द की रचना कर उसे वहां योजित कर देते। अभी अभी जब मैं आवश्यक चूर्णि का पाठ संशोधन कर रहा था तो वहाँ एक शब्द आया : 'चाउलोदणंत" | बहुत प्रयत्न करने पर भी इस शब्द की पहिचान नहीं हो सकी और अर्थबोध अव्यक्त ही रहा । आगे-पीछे के प्रसंगों का अनुसन्धान किया, परन्तु सब व्यर्थ | कोई भी प्रसंग इस शब्द का सही अर्थबोध दे सके वैसा नहीं मिला । खोज चालू रही । अन्त में स्थविर अगस्त्य सिंह द्वारा रचित दशवैकालिक चूर्णि में तप के निरूपण की समाप्ति के बाद 'चालणेदाणि' पाठ मिला । इसीको आवश्यक चूर्णिकार ने ' चालणेदाणंत' के पाठ से सूचित किया था और यही शब्द लिपि में आते आते 'चाउलोदणतं' बन गया । इस प्रकार की कठिनाइयां एक नहीं अनेक आती है । उनको पार करने मैं धैर्य से संतुलन आवश्यक होता है ।
हमने अपने आगमकार्य के लिए आवश्यक कई ग्रन्थ उनसे प्राप्त किए ।
हमें लगा कि मुनि पुण्यविजयजी शरीर से वृद्ध हैं, किन्तु उनकी कार्यजा शक्ति तरुण है । इतने वृद्ध और एकाकी होने पर भी उनमें अपने इस श्रमसाध्य, किन्तु महत्त्वपूर्ण कार्य के प्रति अपूर्व उत्साह और लगन है उनकी व्यवहारकुशलता, सहज नम्रता, मिलनसारिता और श्रमशीतला हमारे मन में आकर्षण पैदा कर रही थी ।
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'जैन भारती' साप्ताहिक, कलकत्ता; ता. १९ -११-६७ (श्री तेरापंथी जैन महासभा का मुखपत्र )
મારું મન માથુ
રચિયતા કુમારી પન્નાબહેન શાહ, કલકત્તાવાળાં
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શાસ્ત્રનું મોંઘેરુ' જ્ઞાન, મારુ મન મોહ્યું,
ગુરુદેવ તારા જ્ઞાનમાં.
ધ્યાન ધરો ભવિયા તમે સાચા ગુરુદેવનુ, ભક્તિની ધૂન મચાય....મારું મન માહ્યું
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જ્ઞાનના ભંડાર ભર્યાં પૂજ્ય ગુરુદેવમાં, 'ज्ञानांनति' ग्रंथ अर्पशु थाय.... भाउ भन भोह्युं
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