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गुजरात
શ્રી આત્માનંદ પ્રકાશ
વડોદરા સંઘની શુભ પ્રેરણાથી,
'पन्ना'नु' प्राशन थाय....भाऊ मन भो● संधवी वैद्यनी शुल प्रेरणाथी,
રૂડા મહાત્સવ ઊજવાય....મારું મન મેાહ્યું પ્રતિવર્ષ ચૈાજો આવા મહાત્સવ ગુરુદેવના, આધ્યાત્મિક વિકાસ સધાય....મારું મન મોહ્યુ (વડાદરામાં દીક્ષાપર્યાયષષ્ટિપૂતિ મહાત્સવ પ્રસંગે ગવાયેલ ગીત )
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के मूक साहित्यसेवी : मुनि पुण्यविजयजी लेखक : डॉ. जगदीशचन्द्र जैन
बम्बई के बालकेश्वरके जैन उपाश्रय के एक कमरे में पोथियोंकी अलमारियां रखी हुई हैं। पोथी-पुस्तकें करीने से सजी है । कुछ छोटी संदूकचियां हैं। काष्ठकी चौकी पर एक थाली में चन्दनकी बुरकी रखी है। एक ओर पानीकी छोटी-सी घटिका तथा जैन साधुओं के पात्र और उपकरण दिखायी दे रहे हैं ।
यही आदीश्वर भगवानका सुप्रसिद्ध जैन मन्दिर है, जहां एक पाटिये पर बिछे हुए संथारे पर मुनिमहाराज बिराजमान हैं। पोथियों के बस्ते और पुस्तकके प्रूफ रखे हुए हैं। पास ही • कंपाउंड ग्लास का चश्मा है, जिससे पता लगता है कि महाराजजी किसी पुस्तकके प्रूफ देख चुके हैं ।
भक्तगणोंका तांता लगा है। स्त्री और पुरुष वंदन कर फर्श पर बैठ जाते हैं। कुशल-वार्ता होती है, फिर धर्मसम्बधी वार्तालाप | महाराजजी श्रावक-श्राविकाओंके सिर पर वासक्षेप (चंदन, कस्तुरी और अंबरमिश्रित सुगन्धित चूर्ण) करते हैं, जिसे भक्तगण सिर झुकाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ग्रहण करते हैं ।
वंदन के पश्चात् मैं भी उनके समीप बैठ गया । औपचारिक वार्तालापके पश्चात् मैंने निवेदन किया- आज आपके जैसलमेर के अनुभव सुननेके हेतु दर्शनार्थ उपस्थित हुआ हूं। आपने जैसलमेर, लिम्बडी, पाटण और संभातके जैन भंडारोंका उद्धार कर साहित्यकी महान सेवा की है।
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' जैसलमेर राजस्थानका एक सुप्रसिद्ध प्राचीन नगर रहा है । यह पाकिस्तानकी सरहद पर बसा है । वर्षमें दो-तीन इंचसे अधिक वर्षा नहीं होती, पानी के लाले पड़े रहते हैं। लोगों का जीवन कष्टमय है। कुछ वर्ष पूर्व यहांके कारीगर पत्थरकी जालियां, खरल और बोतलें बना कर अपनी गुजर-बसर करते रहे, लेकिन धीरे-धीरे उनका यह धंधा कम होता गया और कितने ही अपना घर-बार छोड अन्यत्र जाकर बस गये । अबसे सवासों वर्ष पहले यहांके घरोंकी संखा २७०० थी, जो अब २७ रह गयी है । '
मुनि महाराज कहते हैं, ऐसे दुस्सह स्थान में ग्रन्थभंडार स्थापित कर हमारे पूर्वजोंने प्राचीन साहित्यकी रक्षा कर महान् पुण्यका संचय किया है। आपने तो अनेक दुर्लभ ग्रन्थोंका पता लगाया होगा ?
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'पता तो केवल उन्हीं ग्रन्थोंका लगा सका जो कीड़ों और दीमकोंसे सुरक्षित रह सके । ग्रन्थोंकी रक्षा करनेके हेतु श्रद्धालु जन उन्हें जमीन के अन्दर बने हुए भौरोंमें रखकर बाहर से दरवाजा बंद कर देते और इस दरवाजे पर सीमेंट की मुहर लगा दी जाती । फिर किसकी हिम्मत जो दरवाजे को खोल सले ! लीजिए हो गयी ग्रन्थोंकी सुरक्षा ! बरसों तक परिश्रमपूर्वक लिखे गये ये ग्रन्थराज उसी हालत में दबे पडे रहते और क्षुद्र जंतुओं की खुराक बनते जाते । फलोदीका इसी तरहका एक ग्रन्थभंडार जब ४० वर्ष बाद खोलकर देखा गया तो धूल और मिट्टी के