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મુનિ શ્રી પુણ્યવિજ્યજી શ્રદ્ધાંજલિ-વિશેષાંક
सितारे भी थे, सहारे भी थे लेखक-पूज्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न
आगमप्रभाकर प्रज्ञास्कंध पण्डितप्रवर परमश्रद्धेय श्री पुण्यविजयजी महाराजके आकस्मिक स्वर्गवासके समाचारोंको सुनकर मुझे तथा मेरे सद्गुरुवर्य राजस्थानकेशरी पं. पुष्कर मुनिजी महाराजको हार्दिक आघात लगा।
श्री पुण्यविजयजी महाराजसे मेरा अनेक आगमिक प्रश्नोंको लेकर पत्राचार हुआ है । उन्होंने मुझे समय-समय पर अपने मौलिक सुझाव दिये हैं। पत्रकी प्रत्येक पंक्तिमें उनके हृदयकी विराटता भलक रही है, कहीं पर भी अहंकारकी गंध नहीं है। मेरे जैसे छोटे साधुको व अन्य सम्प्रदायके साधुको पत्रोंमें बन्दना लिखने में भी वे संकोच नहीं करते थे। मैंने उनको अनेक बार निवेदन किया कि आपके जैसे दीक्षास्थविर, ज्ञानस्थविर और वयस्थविरको इस प्रकार लिखना उचित नहीं है, पर उन्होंने उधर कभी भी ध्यान ही नहीं दिया।
बम्बई में गत दो वर्षों में अनेक बार मैं उनकी सेवामें गया, जब भी गया, तब भी वे उसी स्नेह और सद्भावनाके साथ मिले । अपना आवश्यक संशोधन व लेखनका कार्य छोडकर पांच-पांच, छह-छह घटों तक अनेक विषयों पर वार्तालाप किया । मैं साधिकार कह सकता हूं कि वे एक सच्चे महापुरुष थे। महापुरुषोंकी परिभाषा करते हुये कारलाइलने सच ही लिखा है कि-"किसी भी महापुरुषकी महानताका पता लगाना है तो यह देखना चाहिए कि वह अपने छोटोंके साथ कैसा वर्ताव करता है।" प्रस्तुत परिभाषाकी कसौटी पर पुण्यविजयजी महाराज पूर्ण रूपसे खरे उतरते थे। उनके विचार सम्प्रदायवादसे ऊपर उठे हुये थे। वे प्रभावशाली और प्रतिभाशाली दोनों थे। उनसे मिलने और वार्तालाप करने में अपार आनन्दका अनुभव होता था। वे सूझ और बूझके धनी थे। ज्ञानी भी थे औ अनुभवी भी थे। संशोधकोंके लिये सितारे भी थे और सहारे भी थे। वे प्रेमकी पुनित प्रतिमा थे। सरलता, सरसताकी अनमोल निधि थे, ज्ञानकी सच्ची प्याऊ थे, जो भी प्यासा जाता तृप्त होकर लौटता । जो भी ग्रन्थ चाहिए उसे वे विना संकोच देते । पासमें ग्रन्थ होने पर कभी इन्कार नहीं होते, चाहे कितना भी अप्राप्य व अनमोल ग्रन्थ क्यों न हो । मैंने अनुभव किया हैं, उनमें स्नेहका सागर उछाले मार रहा था। वे तनसे वृद्ध थे, कुछ शरीरमें व्याधियाँ भी थीं, पर उनमें अपार जोश था । मनके अणुअणुमें कार्य करनेकी तीव्र लगन थी। कार्य करते समय ऐसा प्रतीत होता था कि वे पूर्ण नौजवान है। वर्षों तक दिनभर बैठकर, रात्रि जागरण कर, सर्दी, गर्मी और वर्षाकी विना चिन्ता किये, उन्होंने जो आगम, निर्यक्ति, चर्णि तथा अन्य साहित्यका संशोधन-सम्पादन किया उसे कौन आगम व साहित्यप्रेमी विस्मृत हो सकेगा? उनकी एकनिष्ठापूर्वक की गई आगम व साहित्यसेवा चिरस्मरणीय रहेगी।
खेद है कि जैन समाज उनके जीवनकालमें उनके द्वारा संशोधित-सम्पादित सभी आगम, नियुक्ति, चर्णि साहित्य प्रकाशित नहीं करवा सका, और न जैसी चाहिए उस प्रकार उनके कार्यकी कद्र ही कर सका । अब वह महत्त्वपूर्ण कार्य पं. दलसुख मालवणिया, पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजकके माध्यमसे शीघ्र ही सम्पन्न कराया जाय, राही उस महापुरुषके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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