SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ ] श्रात्मा आत्मा और पुद्गल स्वयंभू स्वयं अवस्थित हैं। न इन्हें किसीने उत्पन्न किया न कोई उन्हें नष्ट कर सकता है । ये सर्वदासे हैं और सर्वदा रहेंगे । न कभी इनकी संख्या में कमी होगी न बढ़ती । श्रात्मा-पुद्गल के अनादिसम्बन्धसे जब छुटकारा पाता है तो अपने स्व-स्वभाव में स्थिर होता है, अन्यथा श्रात्मा सर्वदा पुद्गल के साथ ही रहता है | आत्माका-पुद्गलसे छुटकारा केवल 'पूर्णता' होने पर ही हो सकता है । ज्ञानकी पूर्णता ही वह पूर्णता है जहां कुछ जाननेको बाकी नहीं रह जाता। हम संसार में रह कर सारी सृष्टिकी मदद से ही सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्ब चरित्र के द्वारा पूर्णताको प्राप्त कर सकते हैं और वह पूर्णता ही मोक्ष है । यही मानव जन्म येने या पानेका भी एकमात्र आदर्श ध्वेव और चरम लक्ष्य है। जो व्यक्ति इस ध्येयको या लक्ष्यको । सम्मुख रख कर संसार में 'संचरण' करता है वही सतत प्रयत्न-द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर उठता उठता एक दिन इस 'पूर्णता' को प्राप्त कर मोक्ष पा जाता है। । संसारकी सारी विडम्बनाएं, दुःख शोक, रगड़े कगड़े उगहाई, युद्ध, रक्षपात, दिसादि केवल इसी कारण होते हैं कि मनुष्य अब तक 'आत्मा' की महत्ता या महानताको ठीक ठीक नहीं जान या समझ सका आधुनिक विज्ञानने । इतनी बड़ी उन्नति को पर वैज्ञानिक स्वयं नहीं बड़ी जानते कि क्या है? कौन है? उनके जीवनका वे अन्तिम लक्ष्य क्या है ? इत्यादि विभिन्न धर्मों और दर्शन-पद्धतियोंने एक दूसरेके विरोधी विचार संसार में प्रचारित करके बढ़ा ही गोलमाल और गदगद फैला बड़ा रखा है। इन विभेदोंके कारण लोग एक सीधा सच्चा मार्ग निर्दिष्ट नहीं कर पाते और भ्रम में भटकते ही रह जाते हैं। अब आवश्यकता है कि विचारक लोग - निक विज्ञान के आविष्कारों और प्राप्त फलोंकी सहायता वही जैन शासनशासन' के प्रति संचेपमें यही 'जैन शासन' है का ध्येय, या सारांश है और यही 'जैन पादन या प्रवर्तनका अर्थ है । अनेकान्त Jain Education International [ किरण ४ से बुद्धिपूर्ण सुतर्क द्वारा 'आत्मा' के अस्तित्व और उसकी महानताका प्रतिपादन करें और लोगों में इस धारणाका पूरा विश्वास बैठायें कि हर एक व्यक्ति अनन्त शक्तियांका धारी पूर्ण ज्ञान याला शुद्ध आमा अन्तर्हित है । व्यक्तियोंके भेद या भिन्नताएं केवल शरीरोंकी विभिन्नताश्रोंके ही कारण हैं। सबमें समान चेतना है । सबके दुखसुख समान हैं इत्यादि । एवं सभी इस अखिल विश्व के प्राणी और एक ही पृथ्वी पर पैदा होने तथा रहनेके कारण एक दूसरे से घनिष्ट रूपसे सम्बन्धित एक ही बड़े कुटुम्बके सदस्य हैं। सबका हित सबके हित में सन्निहित है । आत्माएं तो अलग अलग है पर पुल शरीरी या पुलका सम्बन्ध परमाणु रूपमें भी और संघ रूपमें भी सारे संसार और सारे विश्वसे अनुराग अटूट और अविचल संसार में स्थायी शान्ति, सर्व साधारण की समृद्धि और । सच्चे सुखकी स्थापना सार्वभौमरूपमें ही हो सकती है पक्तिगत या अलग अलग देश भौतिक (Mate rial ) उन्नति भले ही करने पर वह न सच्ची उन्नति हैन उनका सुख ही सच्चा सुख है सच्चा सुख सच्ची उन्नति और सच्ची एवं स्थायी शान्ति तो तभी होगी जब सभी मानवोंनें समान आत्माकी अवस्थिति समझ कर सबको उचित एवं समान सुविधाएं दी जायें और सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक समानताएं अधिक से अधिक सभी जगह सभी देशों में सभी भेदभाव के विचार दूर करके संस्थापित, प्रवर्तित और प्रबंधित की जायें। यही मानव धर्म है, यही जैन धर्म है, यही वैष्णव धर्म है, यही हिंदू धर्म है, वही ईसाई धर्म है यह सच्चा है, चाहे इसे जिस नामसे सम्बोधित किया जाये या पुकारा जाय। है गुरुओं और संसारके विद्वानोंका यह कर्तव्य हैं कि अब इस विज्ञान सप- बुद्धि और तर्कके युगमें रूड़िगत गलत मान्यताओं को छोड़कर आपसी विरोधों को हटायें और मानव मात्रको सच्चे हितकारी अविरोधी धारमधर्मकी शिक्षा देकर संसारको आगे बढ़ायें और अखिल मानवताका सचमुच सच्चा कल्याण करें । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy