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________________ किरण ४] आत्मा, चेतना या जीवन [१४७ कर्म या किसी कीड़ेका शरीर उस कीड़ेके कर्म करता या इन्द्रियों की बनावटों और योग्यताओं पर निर्भर है । इत्यादि । करती है। ___ कर्मोंके अनुसार कार्माण शरीरमें परिवर्तन होता रहता सब कुछ होते हए और पुद्गल शरीरके साथ रहकर है। अनादिकालसे अबतक परिवर्तन होते होते ही किसी अनादि कालसे कम करते हुए भी आत्मा अात्मा ही जोवधारीका कार्माण शरीर उस विशेष प्रात्माको लिए रहता है और जड जड ही रहना है, एवं प्रास्माके गुण हुए उस जीवधारीके उस शरीरके विशेष रूपमें संगठेत ज्ञान-चेतना आत्मामें ही रहते हैं और ज्योंके स्यों रहते हैं और निर्मित हुए रहनेका मूल कारण है । विभिन्न तथा पुद्गलके गुण-जडत्व अथवा हलन-चलन इत्यादिकी व्यक्तियोंकी विभिन्न प्रवृत्तियों और योग्यताओंकी विभि योग्यता पुद्गल में ही रहते हैं और ज्योंके त्यों रहते हैं । न न्नताओंका भी यही मूल कारण है। अनादिकालसे अब श्रात्माके गुण पुद्गल में जाते हैं न पुद्गलके गुण श्रात्मामें । तक संगठित न जाने किस कर्मपुजके प्रभाव में कोई व्यक्ति श्रात्मा सर्वदा शुद्ध ज्ञान चेतना-मय ही रहता है। कोई कर्म करता है। विभिन्न कर्म पुर्जीका सम्मि लत संगठित शरीर ही कार्माण शरीर है। कार्माण शरीर भी यदि अात्मा पुद्गलके साथ अनादिकालसे नहीं रहता पुद्गल-निर्मित ही है । (कार्माण शरीरकी बनावट और तो उसे अलग करने या होनेकी जरूरत नहीं होती। उस में परिवर्तनादिकी जानकारीके लिये जैन शास्त्रोंका दोनोंके गुण और स्वभाव भिन्न भिन्न हैं इससे दोनों अलग मनन करें और मेरा लेख 'कर्मों का रासायनिक सम्मिश्रण अलग हो सकते हैं और होते हैं। श्रात्माका पुद्गलसे देखें जो 'अनेकारत" की गत किरणमें प्रकाशित हो छुटकारा या मुक्ति या मोक्ष हो जाना ही या पा जाना ही छुटकारा या मुक्ति या माक्ष चुका है।) .. प्रास्माका 'स्व-भाव' और किसी जीवधारीका परम लक्ष्य कहनेका तात्पर्य यह है कि कर्म जो भी होते हैं वे या एक मात्र अन्तिम धेय है। मोक्ष पा जाने पर प्रात्मापुद्गल-द्वारा ही होते हैं। प्रात्मा स्वयं कर्म नहीं करता। की क्या दशा होती है या वह क्या अनुभव करता है इस पास्माका गुण कर्म करना नहीं है। आमाका गुए तो पर शास्त्रोंमें बहुत कुछ कहा गया है यहाँ उसे दुहराना 'ज्ञान' है। ज्ञानका अर्थ है जानना । आत्माका यह गुण इस छोटे लेख में सम्भव नहीं है। आत्मा पुद्गलसे छुट. सर्वदा आत्मामें ही रहता है और इसी कारण ही जीव कारा पाकर ही अपने शुद्ध स्व-भावमें स्थिर होता है; यही धारियोंमें ज्ञान या चेतना रहती या होती है । जडवस्तु वह अवस्था है जिसे पूर्णज्ञानमय-निर्विकार-परमानन्द 'जड' है और यह जडत्व ज्ञान शून्यता, या चेतना अवस्था कहते हैं । यहाँ कुछ भी दुख क्लेशादि रूप सांसाहितता गुण सर्वदा जड या पुद्गल ( Matter) रिक अनुभव नहीं रह जाते । प्रारमा स्वयं अपने में लीन स्वामें ही रहता है। हलन चलन या कर्मोका आधार भी जड धीन स्व सुखका शाश्वत अनुभव करता है । यह वह पूर्णता ही है । संज्ञान कर्म या संज्ञान हलन चलन या सचेतन है जहाँ कोई कमी, कोई बाधा, कोई इच्छा, कोई चिन्ता, क्रियाकलाप प्रास्मा और जडके संयुक्त होनेके कारण ही कोई संशय, कोई शंका, कोई भय, कोई बन्धनादि एकदम होते हैं। अन्यथा केवल मात्र जड बस्तुओंके कर्म या नहीं रह जाते । मारमा पूर्ण निर्विकल्प सत-चित् आनन्द परमात्मा हो जाता है। हलन-चलन इत्यादि चेतन सा-रहित ही हो सकते हैं या होते हैं। टेलीफोन या रेडियो यन्त्रसे शब्द निकलते हैं प्रास्माको पुद्गलसे छुटकारा दिला कर इसी परमात्मा पर वे स्वयं कुछ समझ नहीं सकते-उनमें यह शक्ति या पदकी प्राप्तिके लिए ही विश्व या संसारकी सारी सृष्टि है गुण ही नहीं है। इसी तरह फोटो इलेक्ट्रिक सेल या और इस सृष्टिका सब कुछ होता या चलता रहता है। टेली विजन तरह तरहकी रूपाकृतियोंका साक्षात दृश्य सृष्टिका एक मात्र ध्येय ही यही है, अन्यथा सृष्टिका कोई उपस्थित करते हैं पर स्वयं कुछ भी नहीं जान, समझ अर्थ ही नहीं होता । सृष्टि या विश्व या विश्व में विद्यमान देख, या अनुभव कर सकते । अनुभव तो वही कर सकता सब कुछका होना सत्य, शाश्वत और साधार है और इसी है जिसमें चेतना हो। अनुभव या ज्ञानकी कमी वेशी लिए सार्थक है। इसे असत्य, क्षणभंगुर या कोरा नाटक चेतना कराने वाले प्राधारों या माध्यम स्वरूप शरीरों समझना गलती. मिथ्या, और भ्रम है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.527318
Book TitleAnekant 1953 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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