________________
१२२]
जग गई है लाइये मैं इसे दबा दूँ जिससे उसकी पीड़ा कम हो जाय । यह कह कर साधु डाकूके हाथको दवाने खगा। डाकू साधुके शान्त स्वभाव और उसके सहनशील व्यवहारको देखकर उसके चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज ! मैंने आपका बड़ा अपराध किया है, जो मैंने बिना कुछ कहे आपको चांटा मारा और कमंडलु छीना । आप मेरा अपराध क्षमा कीजिये और अपना यह कमंडलु लीजिये इतना कह कर डाकू वहांसे चले गए किन्तु उन पर साधुकी उस सहिष्णुताका अमिट प्रभाव पड़ा ।
अनेकान्त
यदि क्षमाको आत्माका स्वभाव या धर्म न माना जाय तो जो क्रोधी व्यक्ति है उसका क्रोध सदा बना रहना चाहिये। पर ऐसा नहीं होता, क्रोध उदित होता और चला जाता है, इससे यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि क्रोध आत्माका स्वभाव नहीं है पुद्गलकर्मके निमित्त होने वाला श्रदयिक परिणाम है। क्रोधीका संसारमें कोई मित्र नहीं बनता और क्षमाशील व्यक्तिका कोई शत्रु नहीं बनता क्योंकि यह स्वप्न में भी किसीका बुरा चिन्तयन नहीं करता और न किसीका बुरा करनेकी चेष्टा दी करता है। उसका सो संसारके समस्त जीवसे मैत्री भाव रहता है।
माधर्मके दो स्वामी है गृहस्थ और साधु ये दोनों ही प्राणी अपने २ पदानुसार कषायोंके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके अनुसार क्षमा गुणके अधिकारी होते हैं
1
संवर निर्जरा कारक आत्माकी बीतराग परणतिको धर्म कहते है, जो कि मुक्तिका मार्ग है।
उत्तम क्षमादि दस लक्षण धर्म, रत्नमय धर्म सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र) से भिन्न नहीं है, किन्तु एक है ?
उत्तम क्षमा, मार्दव आर्जव, शौच, सत्य ये पांच लक्ष्य सम्यक् दर्शन ज्ञान स्वरूप है, तथा संयम, तप, त्याग आकिंचन ब्रह्मचर्य ये पाँच लक्षण सम्यक् चारित्र स्वरूप है ।
Jain Education International
एक मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबन्धी कषाय इनके अनुदय से पूर्वार्ध पाँच लक्षण ( अथवा स० दर्शन ज्ञान) पैदा होते हैं, तथा शेष कषायक अनुदयसे उत्तरार्धक पाँच वचय अथवा सम्यक् चारित्र) पैदा होते है। मिथ्यात्व (= विषयेषु सुख भ्रान्ति और
लक्षण
कषाय
[ किरण ३
गृहस्थ अपनी मर्यादाके अनुसार क्षमाका अपने जीवन में आचरण कर लोकमें सुखी हो सकता है-जो सरष्टी पुरुष, विवेकी और कर्तव्यनिष्ठ है वह संसारके किसी भी प्राणीका बुरा न चाहते हुए अपने दयालु स्वभावसे आत्मरक्षा करता हुआ दूसरेको प्रयत्न पूर्वक कहन पहुँचा कर सांसारिक व्यवहार करते हुए भी समाका पात्र बन सकता है ।
दस लक्षण धर्म - पर्व
( श्री दौलतराम 'मित्र' )
साधु चूँ कि आत्म-साधना में निष्ठ है सांसारिक संघर्ष से दूर रहता है क्योंकि वह संघर्षके कारण परिग्रहका मोह छो चुका है। यहां तक कि वह अपने शररसे भी निस्पृह छोड़ हो चुका | अतएव वह दूसरोंको पीड़ा देने या पहुँचाने की भावनासे कोसों दूर है, अतः उसका किसीसे वैर-विरोध भी नहीं है, वह सदृष्टि और विवेकी तपस्वी है । श्रतएव वह उत्तम क्षमाका धारक है। उसके यदि पूर्व कर्मकृत अशुभका उदय आ जाता है और मनुष्य तिर्यचादिके द्वारा कोई उपसर्ग परीषह भी सहना पड़े तो उन्हें खुशीसे सह लेता है यह कभी दिलगीर नहीं होता और शरीरके विनष्ट हो जानेपर भी विकृतिको कोई स्थान नहीं देता । वह तपस्वी क्षमाका पूर्ण अधिकारी है। क्षमा शीलही श्रहिंसक है, जो क्रोधी है वह हिंसक है। अतः हमें क्रोधरूप विभावभावका परित्याग करने, उसे दबाने या क्षय कर क्षमाशील बननेका प्रयत्न करना चाहिये ।
श्रीहित ( श्राश्रव बन्ध) कारक सराग परयति है । अतएव सदा सावधान रहकर इससे बचते रहना है । स्व० पं० दौलतरामजीने यही बात क्या ही अच्छे शब्दोंमें कही है
"आतम के अहित विषय कषाय । इनमें मेरी परणति न जाय ।। "
परन्तु आश्चर्य है कि आजकल हम लोगोंने विषय कषाय शोषक दस लक्षण धर्म पर्वको अधिकांश में विषय कपाय पोषक त्यौहार सरीखा बना रखा है। इसमें संशो धन होना आवश्यक है, अन्यथा हम मुक्ति मार्ग से हट जायेंगे किसीने सच कहा है
1
"पर्व ( पोर) खाने ( भोगनेकी ) वस्तु नहीं, किंतु बोने (त्यागने की ) वस्तु है "
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org