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________________ किरण १२ ] [ ४८७ वक्तव्य' में प्रकट कर दी गई। इसके बाद श्रीगोयलीयजी मुझसे मिले और उन्होंने भारतीयज्ञानपीठके साथ अनेकान्तका सम्बन्ध जोड़कर और उसके प्रकाशन, सञ्चालन एवं आर्थिक आयोजनकी सारी जिम्मेदारीको अपने ऊपर लेकर मुझे और भी निराकुल करनेका आश्वासन दिया। चुनाँचे हवें वर्षकी प्रथम किरणके शुरूमें ही मैंने अनेकान्तकी इस नई व्यवस्थादिको प्रकट करते हुए उसपर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की और उसीके आधारपर अनेकान्त पाठकों को यह आश्वासन दिया कि 'अब पत्र बराबर समयपर ( हर महीने के अन्त में) प्रकाशित हुआ करेगा ।' सम्पादकीय मुश्किल से दो किरण निकाल कर ही पं० अजितकुमारजी शास्त्री अपने प्र ेसको देहली उठाकर ले गये और उन्होंने अपने दिये हुए सारे वचन तथा आश्वासनपर पानी फेर दिया ! मजबूर होकर अनेकान्तको फिरसे चार्ज बढ़ाकर रॉयल प्रेसकी शरण में ले जाना पड़ा, जो सहारनपुरमें सबसे अधिक जिम्मेदार प्र ेस समझा जाता है । परन्तु प्र समें उपयुक्त टाइपोंकी कमी के कारण प्रायः हर चार पेजके प्रफके पीछे एक विद्वानको प्रफरीडिङ्गके लिये सहारनपुर जाना आना पड़ा है, जिससे पत्रको समयपर निकाला जा सके जिसकी गोयलीयजी की ओर से सख्त ताकीद थी और इस तरह एक एक फार्मके पीछे कितना ही फालतू खर्च करना पड़ा है और दोबारा भी प्र ेसका चार्ज बढ़ाना पड़ा है; फिर भी पत्र समयपर प्रकाशित न हो सका और यह किरण ३-४ महीने के विलम्बसे प्रकाशित हो रही है । गोयलीयजीको इस सारी स्थितिसे बराबर अवगत रक्खा गया है और अनेक बार यह प्रार्थना तथा प्र ेरणा की गई है कि वे अनेकान्तकी छपाईकी सुव्यवस्था इलाहाबाद के प्रथा बनारसके किसी अच्छे प्र ेस में करें; परन्तु हरबार उन्होंने इस ओर उपेक्षा ही धारण को कभीकभी लाजर्ननल प्र ेसके अधिक चार्ज और वहाँ ठीक व्यवस्था बात भी कही, और इसलिये यह समझा गया कि आप अनेकान्तका समयपर सुन्दररूपमें प्रकाशित होना तो देखना चाहते हैं किन्तु किन्हीं कारणोंके वश व्यवस्थाका भार अपने ऊपर लेकर भी, उसके लिये योग्य प्रसादिको व्यवस्था करनेमें योग देना नहीं चाहते । इसीसे अन्तको विलम्बकी शिकायत होनेपर इधरसे उस विषय में अपनी मजबूरी ही जाहिर करना पड़ी। आठवें वर्षकी किरणें जब एक वर्षकी जगह दो वर्ष में प्रकाशित हो पाई थी और पाठकोंको प्रतीक्षाजन्य बहुत कष्ट उठाना पड़ा था तब उनका विश्वास अनेकान्त के समयपर प्रकाशित होनेके विषय में प्रायः उठ गया था और इसलिये उनका आगेके लिये ग्राहक न रहना बहुत कुछ स्वाभाविक था; चुनाँचे तीसरी किरण जब वी० पी० की गई तब लगभग आधे ग्राहकोंकी वी० पी० वापिस हो गई। इधर पत्रमें फिरसे विलम्ब शुरू हो गया और उसमें सचालन विभागकी ओरसे चित्रों आदिका कोई आयोजन नहीं हो सका, जो आजकल के पत्रोंकी एक खास विशेषता है । इससे नये ग्राहकोंको यथेष्ट प्रोत्साहन नहीं मिला और उधर छपाई तथा कागज. आदि चार्ज बढ़ गये । पत्रको सहायता भी कम प्राप्त हुई । इन्हीं सब कारणोंसे अनेकान्तको इस वर्ष काफ़ी घाटा उठाना पड़ा है, जिसका मुझे खेद है। कुछ दिन हुए न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने अपने एक पत्रमें यह सूचना को कि अनेकान्तको समयपर प्रकाशित करनेके लिये बनारस में प्र सकी अच्छी योजना हो सकती है । तदनुसार गोयलीयजीको उसकी सूचना देते हुए फिरसे बनारस में ही छपाईकी योजना करनेकी प्रेरणा की गई; परन्तु उन्होंने उत्तर में डालमियानगर से भेजे हुए अपने तीन माचके पत्र में Jain Education Internation यह लिखा कि "बनारस में भी छपाईकी अच्छी व्यवस्था नहीं है। ज्ञानपीठका प्रकाशन जिस www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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