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________________ ४८६ ] [ वर्ष 1 भाषाओं में साहित्यिक रचना करनेमें जो अपनेको अपमानित समझते थे वे पूँजीपति या एक वर्गविशेषके ही कलाकार रह गए हैं। जबकि जैनी जनताके पथ-प्रदर्शक के रूपमें रहे हैं। भाषाविषयक जैनोंके औदार्यपूर्ण आदर्शको आजके साहित्यिक यदि मान लें और राष्ट्र-भाषाकी समस्या जनतापर छोड़ दें तो मार्ग बहुत सुगम हो जायेगा । यदि हमारे देशी शब्दोंसे ही समुचितरूपसे भावोंका व्यक्तीकरण हो जाता है तब यह कोई आवश्यक नहीं है कि विदेशी शब्दोंको चुन-चुनकर राष्ट्र-भाषा में ठूसें । जैन दृष्टिकोण राष्ट्र-भाषापर इतना अवश्य कहेगा कि हिन्दी उस राष्ट्रकी भाषा होने जारही है, जिसकी संस्कृतिमें विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं का समन्वयात्मक प्रयास वर्षोंसे चला आ रहा है। कई जातियोंका यह महादेश है । उसपर यह सिद्धान्त कैसे लादा जा सकता है कि राष्ट्र-भाषामें अमुक भाषा के शब्द अधिक रहें । वैयक्तिकरूपसे हम भले ही संस्कृतनिष्ठ हिन्दीका व्यवहार करें । परन्तु भाषाका प्रश्न व्यष्टिसे न होकर समष्टिसे है । भाषाका प्रवाह शताब्दियोंसे जिस रूपसे चला आ रहा था उसीको कुछ परिवर्तितरूपमें क्यों नहीं बहने दिया जाता ? साहित्यिक भले ही कठिनतर शब्दोंका प्रयोग करें, परन्तु अशिक्षित या अल्पशिक्षा प्राप्त मानवोंसे वे ऐसी आशा क्यों कर रहे हैं ? राष्ट्र-भाषा न बनारसी हिन्दी हो सकती है न लाहोरी उर्दू ही । किसी भी प्रान्तकी शब्दावलियोंसे प्रचलित शब्दोंको यदि हम अपनी वर्तमान हिन्दीमें पचा लेते हैं तो बुरा ही क्या है ? क्योंकि हिन्दी जीवित भाषा है मृत नहीं । जबतक जीवन है तबतक परिवर्तन होते ही रहेंगे । परिवर्तनशीलता के सिद्धान्तसे जितनी भी बचानेकी चेष्टा की जाएगी उतनी ही हमें हानि उठानी पड़ेगी । अतः संक्षिप्तमें जैन दृष्टिकोणका यही सारांश है कि राष्ट्र-भाषा हिन्दी सरलसुबोध होनी चाहिए। साथ ही साथ इस बातका ध्यान रक्खा जाय कि इसमें जहाँतक हो सके उन्हीं भाषाओं के शब्दोंकी बाहुल्यता रहे जिनमें आर्य संस्कृतिका समुचित व्यक्तीकरण सरलता पूर्वक हो सके। यह कोरा आदर्श ही नहीं है, अपितु शताब्दियों तक अनुभवकी वस्तु रहा है । डालमियाँनगर, ता० २१-१-४६ ई० कतार २ - अनेकान्तकी वर्ष समाप्ति और अगला वर्ष इस संयुक्त किरण (११, १२ ) के साथ अनेकान्तका नवमा वर्ष समाप्त हो रहा है । इस वर्ष में अनेकान्तने अपने पाठकोंकी कितनी और क्या कुछ सेवा की उसे यहाँ बतलाने की जरूरत नहीं - वह उसके गुणग्राही पाठकोंपर प्रकट है। हाँ, इतना जरूर कहना होगा कि इस वर्ष यदि कोई विशेष सेवाकार्य हो सका है तो उसका श्रेय सहयोगी सम्पादकों और खासकर भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय मन्त्री 'भारतीयज्ञानपीठकाशी' को प्राप्त है— उन्हींकी सुव्यवस्थाका वह फल है, और जो कुछ त्रुटि रही है वह सब मेरी है— मेरी अयोग्यताको ही उसका एकमात्र जिम्मेदार समझना चाहिये। मैं यहाँपर जो कुछ बतलाना चाहता हूँ वह प्रायः इतना ही है कि अनेकान्तके आठवें वर्ष की समाप्तिपर, जिसका कार्यकाल १२की जगह २४ महीनेका होगया था, मेरे सामने पत्रको बन्द करने की समस्या उपस्थित हो रही थी; क्योंकि प्रेसोंके आश्वासन भङ्ग और गैरजिम्मेदाराना रवैये आदिके कारण मैं बहुत तङ्ग आगया था, मेरा दिल टूट गया था और मैं प्रेसकी समुचित व्यवस्था न होने तक पत्रको बन्द करना ही चाहता था कि प० अजितकुमारजी शास्त्रीने, जो अपना 'अकलङ्क प्रेस' मुलतानसे सहारनपुर ले आए थे, मुझे वैसा करनेसे रोका और पूरी दृढ़ता के साथ अनेकान्तको अपने प्रेस में बराबर समयपर छापकर देनेका वचन तथा आश्वासन दिया । तदनुसार ही अनेकान्तको अगले वर्ष निकालनेका संकल्प किया गया और उसकी सूचना 'सम्पादकीय Jain Education Internation अनेकान्त www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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