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________________ अनेकान्त ४६८ ] शारीरिक शक्तिकी परिभाषा और उसके विकासके धार्मिक नियम शारीरिक शक्तिमें मानवका स्थूल शरीर, उसकी इन्द्रियाँ - हाथ, पैर, नाक, कान प्रभृति शामिल हैं। इस शक्तिको विकसित करनेका काम भी धर्मका है, अर्थात् समाजके वे नियम जिनके द्वारा इस शक्तिका पूर्ण विकास हो सके, इसके विकासमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न हो । मनुष्यको प्रारम्भसे ही शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भोजन, वस्त्र की आवश्यकता होती है, उसे रहनेके लिये स्थान और आने-जानेके लिये सवारी भी चाहिये । [ वर्ष ह वश्यकता वस्तुओंके मिलनेसे उसका शरीर पुष्ट होता है, इन्द्रियोंमें पुष्टि आती है। तथा समस्त शरीरके अङ्गपाँगरूप शारीरिक शक्तिका विकास होता है। समाज में आवश्यकता की वस्तुएँ थोड़ी हैं और उनके लेने वाले अत्यधिक हैं । इसलिये समाजके सभी सदस्यों को वस्तुओंके वितरणके लिये राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक नियमोंका निर्माण किया जाता है; जो कि शारीरिक शक्तिके विकसित करनेके लिये. धार्मिक नियम हैं । किन्तु इतना स्मरण रखना होगा कि जब इस शक्तिका चरम विकास हो जाता है, उस समय ये क्षुद्र नियम लागू नहीं होते हैं। इसीलिये इन नियमोंको स्थिर नहीं माना जा सकता, किन्तु एक समय में निर्मित नियम दूसरे समयके लिये अनुपयोगी भी साबित हो सकते हैं । अतएव श्रजकी परिस्थितियों के प्रकाशमें शक्तित्रयके विकासको देखना आवश्यक है। । शारीरिक शक्तिके साधन अर्थकी व्यापकता और सिक्केका प्रचलन शरीर के विकास के लिये अर्थकी कितनी आवश्यकता है, यह किसीसे छुपा नहीं । भोजन, वस्त्र, सवारी प्रभृति समस्त पदार्थ अर्थके अन्तर्गत हैं । केवल रुपयेका नाम अर्थ नहीं है । आजसे सहस्रों वर्ष पूर्व एक ऐसा भी युग था, जिसमें सिक्का नहीं था, केवल वस्तुओं के परस्पर विनिमय से कार्य चलते थे। लेकिन जब इस विनिमयकी क्रियासे मानवकी शारीरिक आवश्यकताकी पूर्त्तिमें बाधा आने लगी तो अर्थके प्रतीक सिक्केका जन्म हुआ । स्पष्ट करने के लिये यों कहा जा सकता है कि कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जिनमेंसे एकके पास गेहूं, चना आदि अन्न हैं, दूसरा एक ऐसा आदमी है जिसके पास मवेशी हैं, तीसरा एक ऐसा व्यक्ति है। जिसके पास वस्त्र हैं। पहले व्यक्तिको फलों की आवश्यकता है, दूसरेको अनाज की आवश्यकता और तीसरेको तरकारियों की । ये तीनों ही व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकता की वस्तुकी प्राप्ति के लिये छटपटा रहे हैं। पहला अनाज वाला व्यक्ति फलोंकी दुकानपर गया और फल वालेसे अनाजके बदले में फल देने को कहा; किन्तु फल वालेको अनाज की आवश्यकता नहीं । अतः अनाज से फलोंका विनिमय नहीं करना चाहता अथवा अधिक अनाज के बदले में कम फल देना चाहता है, इससे पहले व्यक्ति के सामने विकट समस्या है। दूसरे व्यक्तिको अनाज चाहिये, अतः वह मवेशी लेकर गया और बदले में अनाज मँगाने लगा, किन्तु पहले व्यक्तिको मवेशी की जरूरत नहीं, उसे तो फल चाहियें । इसलिये उसने मवेशी के बदले में अनाज देनेसे इन्कार कर दिया अथवा एक मवेशी लेकर थोड़ासा अनाज देना चाहता है, जिससे दूसरा व्यक्ति अपनी आवश्यकता पूर्ति किये बिना ही लौट आता है । यही अवस्था तीसरे की है, उसे भी अपनी आवश्यकता की पूर्त्तिमें बाधा है । यदि ये व्यक्ति और भी कई प्रकार के पदार्थ – नमक, मिर्च, मसाला प्रभृति खरीदना चाहें तो इन्हें ये पदार्थ भी बड़ी कठिनाईसे मिलेंगे । समाजकी इस कठिन समस्याको सुलझाने के लिये धार्मिक नियम सिक्के प्रचलनके रूपमें आविर्भूत हुआ । समाजकी छीना-झपटीकी समस्या Jain Education Intemation को अर्थके प्रतिनिधि सिक्केने दरकर मानवको उन्नत बनाने में बड़ा योग दिया है। www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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