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________________ श्रीमन्मुनिमदनकीर्ति-विरचिता शासन - चतुस्त्रिंशिका [ यह मुनि मदनकीर्ति विरचित एक सुन्दर एवं प्रौढ रचना है। इसमें दिगम्बर शासनका महत्व ख्यापित करते हुए उसका जयघोष किया गया है। जहाँ तक हमें ज्ञात है, इसकी मात्र एक ही प्रति उपलब्ध है और जो पिछले वर्ष श्रद्धय पं० नाथूरामजी प्रेमी बम्बई के पाससे पं० परमानन्दजीद्वारा बीरसेवामन्दिरको प्राप्त हुई थी । यह पाँच पत्रात्मक सटिप्पण प्रति बहुत कुछ जीर्ण-शीर्ण है और लगभग चालीस- पैंतालीस स्थानोंपर इसके अक्षर अथवा पद-वाक्य, पत्रोंके परस्पर चिपक जाने श्रादिके कारण प्रायः मिट-से गये हैं और जिनके पढ़नेमें बड़ी कठिनाई महसूस होती है । प्रेमीजीने भी यह अनुभव किया है और अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' ( पृ० १३६ ) में लिखा है - " इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है परन्तु वह दो- तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती । जगह जगह अक्षर उड़ गये हैं जिससे बहुतसे पद्य पूरे नहीं पढ़े जाते ।” हमने सन्दर्भ, अर्थसंगति, अक्षरविस्तारक यंत्र आदि साधनोंद्वारा परिश्रमके साथ सब जगह के अक्षरोंको पढ़कर पद्योंको पूरा करनेका प्रयत्न किया है— सिर्फ दो जगह के अक्षर नहीं पढ़े गये और इसलिये उनके स्थानपर बिन्दु बना दिये गये हैं। अब तक इस कृतिके प्रकाशमें न आ सकने में संभवतः यही कठिनाई बाधक रही जान पड़ती है । अस्तु । इस कृतिमें कुल ३६ पद्य हैं। पहला पद्य अगले ३२ पद्योंके प्रथमाक्षरोंसे बनाया गया है जो अनुष्टुप् वृत्तमें है और अन्तिम पद्य प्रशस्ति-पद्य है जिसमें रचयिताने अपने नामोल्लेख के साथ अपनी कुछ आत्म-चर्याका संसूचन (निवेदन) किया है और जो मालिनी छन्दमें है । शेष ३४ पद्य प्रन्थविषयसे 'सम्बद्ध हैं और शार्दूलविक्रीडित वृत्तमें हैं । इन चौतीस पद्योंमें दिगम्बर शासनकी महिमा और विजयकामना प्रकट को गई है । श्रतएव यह मदनकीर्तिकी रचना 'शासनचतुस्त्रिंशि (शति ) का' अथवा 'शासनचौतीसी' जैसे सार्थक नामोंसे जैनसाहित्य में प्रसिद्धिको प्राप्त है । इसमें विभिन्न स्थानों और वहाँ के दिगम्बर 1 जिनबिम्बों के अतिशयों, प्रभावों और चमत्कारोंके प्रदर्शनद्वारा यह बतलाया गया हैं कि दिगम्बर शासन सब प्रकारसे जयकारकी क्षमता रखता है और उसके लोकमें बड़े ही प्रभाव तथा अतिशय रहे हैं । कैलाश के जिनबिम्ब, पोदनपुरके बाहुबली, श्रीपुरके पार्श्वनाथ, हुलगिरिके शंखजिन, धाराके पार्श्वनाथ, बृहत्पुरके बृहद्द ेव, जैनपुर ( जैनबी) के दक्षिणगोम्मट, पूर्वदिशाके पार्श्व जिनेश्वर, वेत्रवती (नदी) के शान्तिजिन, उत्तरदिशा के जिनबिम्ब, सम्मेदशिखरके बीस तीर्थंकर, पुष्पपुरके श्रीपुष्पदन्त, नागद्रइतीर्थ के नागहृदेश्वरजिन, सम्मेदशिखरकी अमृतवापिका, पश्चिमसमुद्रतटके चन्द्रप्रभजिन, छायापार्श्व विभु, श्रीश्रादिजिनेश्वर, पावापुरके श्रीवीरजिन, गिरनार के श्रीनेमिनाथ, चम्पापुरीके श्रीवासुपूज्य, नर्मदाके जलसे अभिषिक्त श्रीशान्तिजिनेश्वर, अवरोधनगरके मुनिसुव्रतजिन, विपुलगिरिका जिनबिम्ब, विन्ध्यगिरिके जिनचैत्यालय, मेदपाट (मेवाड़) देशस्थ नागफणीग्रामके श्रीमल्लिजिनेश्वर और मालवदेशस्थ मगलपुर श्रीश्रभिनन्दनजिन इन २६ के अतिशयों तथा चमत्कारोंका इसमें कथन है । साथ ही, यह भी प्रतिपादन किया गया है कि वैशेषिक (कणाद), मायावी, योग, सांख्य, चार्वाक और बौद्धों द्वारा भी दिगम्बर शासन समाभित हुआ है। इस तरह यह रचना एक प्रकार से दिगम्बर शासनके प्रभावकी प्रकाशिका है। इसके कर्ता मुनिमदनकीर्ति प० श्राशाधरजीके, जिनका समय विक्रमकी १३वीं शताब्दी सुनिश्चित है, समकालीन थे और इसलिये इनका समय भी वि० की १२वीं शताब्दी है । प्रस्तुत रचना हिन्दी अनुवादके साथ वीरसेवामन्दिरसे यथाशीघ्र प्रकाशित की जायेगी । और उसमें रचना तथा रचयिता के सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाला जायेगा । - दरबारीलाल कोठिया ] For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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