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________________ किरण ११ ] [ ४६१ अलङ्कारकी भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिये उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीनसाहित्य में प्रायः देखनेको नहीं मिलता । श्वेताम्बर साहित्यका जो एक उदाहरण ऊपर दिया गया है वह रत्नशेखरसूरिकृत गुरुगुणषट् त्रिशत्षट्त्रिंशिकाकी स्वोपज्ञवृत्तिका एकवाक्य होने के कारण ५०० वर्ष से अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इसलिये वह सिद्धसेनकी दिवाकररूपमें बहुत बादकी प्रसिद्धिसे सम्बन्ध रखता है । आजकल तो सिद्धसेन के लिये 'दिवाकर' नामके प्रयोगकी बाढ़ सी आरही है परन्तु अतिप्राचीन कालमें वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता । सन्मति - सिद्धसेनाङ्क यहाँपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर प्रबन्धों तथा पट्टावलियों में सिद्धसेन के साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिर में लिङ्गस्फोटनादि - सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर सम्प्रदायमें भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगणकी पट्टावलीके निम्न वाक्यसे प्रकट है: “ ( स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल - संस्थापन-महाकाललिङ्गमहीधर-वाग्वजदण्डविष्ट्याविकृत - श्री पार्श्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द श्रीसिद्धसेन भट्टारकाण । म् ||१४||” ऐसी स्थिति में द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन के विषय में भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे. सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेनकी तो बात ही जुदी है । परन्तु सम्मतिकी प्रस्तावना में पं सुखलालजी और पण्डित बेचरदासजीने उन्हें एकान्ततः श्वेताम्बर सम्प्रदायका आचाय प्रतिपादित किया है - लिखा है कि 'वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं' ( पृ० १०४) । परन्तु इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई समर्थ कारण नहीं बतलाया, कारणरूप में केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीर गृहस्थाश्रम तथा चमरेन्द्रके शरणागमनकी बात सिद्धसेनने वर्णन की है जो दिगम्बरपरम्परा में मान्य नहीं किन्तु श्वेताम्बर आगमोंके द्वारा निर्विवादरूपसे मान्य है' और इसके लिये फुटनोटमें ५वीं द्वात्रिंशिका के छठे और दूसरी द्वात्रिंशिका के तीसरे पद्यको देखनेकी प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार हैं: “अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते । चचार निकशरस्तमर्थं त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः ।।५-६ ।। " " कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्ष दैत्याधिपः शतमुख-भ्रकुटीवितानः । त्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलब्धचेता लज्जातनुद्य ति हरेः कुलिशं चकार ॥ २-३ ||” इनमेंसे प्रथम पद्य में लिखा है कि 'हे यशोदाप्रिय ! दूसरे अनेक जन्मोंमें भग्नमान हुआ कामदेव निर्लज्जतारूपी बारणको लिये हुए जो आपके सामने कुछ चला है उसके अर्थको हीनयके ज्ञाता जानते हैं, दूसरा और कौन जान सकता है ? अर्थात् यशोदा के साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्य को समझने के लिये हम असमर्थ हैं।' दूसरे पद्य में देवासुर संग्रामके रूपमें एक घटनाका उल्लेख है, 'जिसमें दैत्याधिप असुरेन्द्रने सुरवधुओं को भयभीतकर उनके रोंगटे खड़े कर दिये । इससे इन्द्रकी भ्रकुटी तन गई और उसने उसपर वज्र छोड़ा, असुरेन्द्र ने भागकर वीरभगवानके चरणोंका आश्रय लिया जो कि शान्तिके धाम हैं और उनके प्रभावसे वह इन्द्रके वज्रको लज्जासे क्षीणद्युति करने में समर्थ हुआ ।' Jain Education Internation अलंकृत भाषा में लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओंका श्वेताम्बर सिद्धान्तोंके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है और इसलिये इनके इस रूपमें उल्लेख मात्रपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्योंके लेखक सिद्धसेन वास्तवमें यशोदाके साथ भ० महावीरका विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना सजाकर तथा अपना भयंकर रूप बनाकर युद्ध के लिये स्वर्ग में जाना आदि मानते थे, और इसलिये श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य थे: www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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