SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त ४६० ] [वर्ष ह कर्ता सिद्धसेन के साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषणके जुड़ जाके कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं । अन्यथा, पं० सुखलालजी आदिके शब्दों (प्र० प्र० १०३ ) में 'जिन द्वात्रिंशिकाओंका स्थान सिद्धसेनके ग्रन्थोंमें चढ़ता हुआ है' उन्हींके द्वारा सिद्धसेनको प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रसूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होने वाले सिद्धसेन उन सिद्धसेनसे प्रायः भिन्न हैं जो द्वात्रिंशिकाओंको रचकर यशस्वी हुए हैं। हरिभद्रसूरि के कथनानुसार जब सन्मति के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर' की आख्याको प्राप्त थे तब वे प्राचीन साहित्य में सिद्धसेन नामके विना 'दिवाकर' नामसे भी उल्लेखित होने चाहियें, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र 'स्वामी' नामसे उल्लेखित मिलते हैं ' । खोज करनेपर श्वेताम्बर साहित्य में इसका एक उदाहरण 'अजरक्खनंदिसेखो' नामकी उस गाथामें मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेखमें 'पावयणी धम्मकही' नामकी गाथाके साथ उद्धृत किया है और जिसमें आठ प्रभावक आचार्योंकी नामावली देते हुए 'दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धसेनदिवाकरका नाम भी सूचित किया गया है । ये दोनों गाथाएँ पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोटमें उक्त लेखकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बर साहित्य में 'दिवाकर' का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेणाचार्य के पद्मचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमें पाया जाता है, जिसमें उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, अर्हमुनिका गुरु और रविषेणके गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरू प्रकट किया है:श्रासीदिन्द्रगुरोर्दिवाकर-यतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥१२३–१६७॥ इस पद्य में उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धसेनदिवाकर होना दो कारणों से अधिक सम्भव जान पड़ता है - एक तो समयकी दृष्टिसे और दूसरे गुरु नामकी दृष्टिसे । पद्मचरित वीरनिर्वाणसे १२०३ वर्ष ६ महीने बीतने पर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४ में बनकर समाप्त हुआ है, इससे रविषेणके पड़दादा (गुरुके दादा) गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी ७वीं शताब्दीके द्वितीय चरण (६२६ - ६५० ) के भीतर आता है जो सन्मतिकार सिद्धसेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत्त आदि किसी नामका संक्षिप्तरूप अथवा एक देश मालूम होता है । श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें जहाँ सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्य के बाद 'अत्रान्तरे' जैसे शब्दों के साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धसेनदिवाकरके गुरुका नाम इन्द्र जैसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्त्तक विक्रमादित्य के साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही सिद्धसेनदिवाकरका इन्द्र दिन्न आचार्यकी पट्टबाह्य शिष्यपरम्परामें स्थान दिया गया हो । यदि यह कल्पना ठीक है। और उक्त पद्य में 'दिवाकरयतिः' पद सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषेणाचार्य के पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य थे । अन्यथा यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवन में 'दिवाकर' की ख्याको प्राप्त नहीं थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषरण बादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती किसी पूर्वाचार्यने १ देखो, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी प्रस्तावना पृ० ८ । २ द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीतेऽद्ध चतुष्कवर्षयुक्ते । Jain Education International जिनभास्कर- वद्धमान सिद्ध चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥१२३-१८१ ॥ + www.jainelibrary.org
SR No.527261
Book TitleAnekant 1948 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages88
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy