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किरण ११ ]
सन्मति - सिद्धसेनाङ्क
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सिद्धसेनदिवाकरसे भिन्न कोई दूसरे भी सिद्धसेन हुए हों जो कि युगपद्वादके समर्थक हुए हों या माने जाते हों।" वे दूसरे सिद्धसेन अन्य कोई नहीं, उक्त तीनों द्वात्रिंशिकाओं में से किसी के भी कर्ता होने चाहियें । अत: इन तीनों द्वात्रिंशिकाओं को सन्मतिसूत्रके कर्ता आचार्य सिद्धसेनकी जो कृति माना जाता है वह ठीक और सङ्गत प्रतीत नहीं होता । इनके कर्ता दूसरे ही सिद्धसेन हैं जो केवलीके विषयमें युगपद् उपयोगवादी थे और जिनकी युगपद्-उपयोगवादिताका समर्थन हरिभद्राचार्यके उक्त प्राचीन उल्लेखसे भी होता है ।
(३) १९वीं निश्चयद्वात्रिंशिका में “सर्वोपयोग- द्वैविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्” इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोंके उपयोगका द्वैविध्य अविनश्वर है ।' अर्था कोई भी जीव संसारी हो अथवा मुक्त, छद्मस्थज्ञानी हो या केवली सभी ज्ञान और दर्शन दोनों प्रकारके उपयोगोंका सत्व होता है - यह दूसरी बात है कि एकमें वे क्रमसे प्रवृत्त (चरितार्थ) होते हैं और दूसरेमें आवरणाभावके कारण युगपत् । इससे उस एकोपयोगवादका विरोध आता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्रमें केवलीको लक्ष्यमें लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह १६वीं द्वात्रिंशिका भी सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी कृति मालूम नहीं होती ।
(४) उक्त निश्चयद्वात्रिंशिका १६ में श्रुतज्ञानको मतिज्ञानसे अलग नहीं माना हैलिखा है कि 'मतिज्ञानसे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नहीं है, श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्थ तथा अतिप्रसङ्ग दोषको लिये हुए है।' और इस तरह मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका अभेद प्रतिपादन किया है । इसी तरह अवधिज्ञानसे भिन्न मन:पर्ययज्ञानकी मान्यताका भी निषेध - किया है - लिखा है कि या तो द्वीन्द्रियादिक जीवोंके भी, जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते हैं, मन:पर्ययविज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मनःपर्ययज्ञान कोई जुदी वस्तु नहीं है । इन दोनों मन्तव्योंके प्रतिपादक वाक्य इस प्रकार हैं:“वैयर्थ्याऽतिप्रसंगाभ्यां न मत्यधिकं श्रुतम् । सर्वेभ्यः केवलं चक्षु स्तमः -क्रम - विवेकक्कृत् ॥१३॥” “प्रार्थना-प्रतिघाताभ्यां चेष्टन्ते द्वीन्द्रियादयः । मनःपर्यायविज्ञानं युक्त तेषु न वाsन्यथा ||१७||"
यह सब कथन सन्मतिसूत्रके विरुद्ध है, क्योंकि उसमें श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान दोनोंको अलग ज्ञानोंके रूपमें स्पष्टरूपसे स्वीकार किया गया है— जैसा कि उसके द्वितीय ' कडगत निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
"मणपजवरणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो || ३ || " " जेण मरणोविसयगयाण दंसणं णत्थि दव्वजायाणं । तो मरणपञ्जवरणाणं णियमा गाणं तु खिद्दिट्ठ ं ॥ १९ ॥ | " "मपजवाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्त ं । भइ गाणं गोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा || २६॥” " मइ- सुय - गागरिमित्तो छ मत्थे होइ प्रत्थउवलंभो । एगयरम्मि वि तेसिं रण दंसणं दंसणं कत्तो १ ॥२७॥ जं पच्चक्खग्गहणं णं इंति सुयरणारण - सम्मिया तम्हा दंसणसहो ग होइ सयले वि सुयणा
१ तृतीय काण्ड में भी श्रागमश्र तज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है ।
त्था ।
||२८||"
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