SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ अनेकान्त [वर्ष ९ अगर आप हमें न देकर सिर्फ १-२ को देकर चले अपनी दानशीलताकी खाज मिटाई गई । कारमें सब जायेंगे तो सारा गाँव इन्हें हलका समझेगा, ताना साथी मुँह लटकाये दिल्ली वापिस जारहे थे, हम बड़े मारेगा, इसी डरसे यह लोग नहीं लेते हैं न लेंगे। या ये किसान, शायद इसी समस्याको सब बड़ा जी खराब हुआ, जिन्हें सचमुच सहायताको सुलझा रहे थे। जरूरत थी, उन्हें भी सहायता न दी जासकी । लाचार कारमें बैठकर नहरकी पटरी-पटरी दिल्लीकी डालमियाँनगरमें सहारनपुरके चौ० कुलवन्तओर वापिस जारहे थे कि नहरके किनारे कुछ राय जैन रहते थे । ५०-५५ वर्षकी आयु होगी। लोग औरतों बच्चों समेत दिखाई दिये तो कार जीशऊर, खुशपोश और बड़ी वजह क़तहकं बुजुर्ग रुकवा ली। पूछनेपर मालूम हुआ कि गाँवमें पानी थे। घरके आसदा थे. मगर व्यापारमें घाटा आजाने आजानेसे यह लोग यहाँ आगये हैं और ज्यादातर से यहाँ सर्विस करके दिन गुजार रहे थे। मामली किसान जाट हैं। वेतन और मामूली पोस्ट पर काम करते थे। मेरे पास हमने जब इमदाद देनेकी बात उठाई तो वे अक्सर आया करते और बड़ी तजरुवेकी बातें लोग बातको टाल गये, दुबारा कहा तो ऐसे चुप सुनाया करते थे। निहायत खुश अखलाक बामज़ाक, होगये जैसे कुछ सुना ही नहीं। फिर तनिक जोर नेकचलन और कायदा करीनेके इन्सान थे। उनकी देकर कहा तो बोले-आपकी मेहरबानी, हमें किसी सुहबतमें जितना भी वक्त सर्फ हुआ, पुरलुत्फ रहा । चीजकी दरकार नहीं, भगवानका दिया सब हर इन्सानको घरेलू परेशानियाँ और नौकरी सम्बन्धी असुविधाएँ होती हैं, मगर २-३ सालके ___ उस गाँवकी भिक्षुक मनोवृत्ति देखकर हम जो अर्सेमें एकबार भी ज़बानपर न लाये । मिल क्षेत्रों में गाँव वालोंके प्रति अपनी राय कायम कर चुके थे। जहाँ बिल लोगोंको न्या जहाँ बैठे बिठाये, लोगोंको उत्पात सूझते रहते हैं। वह उड़ती नज़र आई तो हमने अपनी दानवीरताके इंक्रीमेण्ट, (वार्षिक तरक्की) बोनस (नौकरीके अतिबड़प्पनके स्वरमें तनिक मधुरता घोलते हुए कहा- रिक्त वार्षिक भत्ता) डेजिगनेशन (पद) और ऑफि"सोचकी कोई बात नहीं, तुम्हारा जब सब उजड़ ससकी शिकायतें, किन्कलाब, मुर्दावाद और हाथगया है, तो यह सामान लेनेमें उज्र किस बातका ? हाथके नारोंसे अच्छे अच्छोंके आसन और मन यह तो लाये ही आप लोगोंके लिये हैं।" हिलजाते हैं । तब भी उनके चेहरेपर न शिकन ___ हमारी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी, शिष्टाचारके दिखाई दी, न ज़बानपर हर्फेशिकायत.।। नाते उन्होंने कहा तो शायद कुछ नहीं, फिर भी उनका इकलौता लड़का रुड़की कॉलेज में इञ्जीउनके मनोभाव हमसे छिपे नहीं रहे। उन्होंने मौन नियरिङ्ग पढ़ रहा था। शायद ८०) रु. मासिक रहकर ही हमपर प्रकट कर दिया कि जो स्वयं भेजने पड़ते थे । मैं जानता था यह उनके बूतेके अन्नदाता हैं, वे हाथ क्या पसारेंगे? फिर भी हमारे बाहर है, उन्हें बमुश्किल इतना कुल वेतन मिलता मन रखनेको उनमेंसे एक बूढ़ा बोला-“लाला- था। अत: मैं समझता था कि या तो धीरे-धीरे बचे हम सब बड़े मौजमें हैं, अगर कुछ देनेकी समाई है खुचे जेवर सर्फ होरहे हैं या सरपर ऋण चढ़ रहा तो उस टीलेपर हमारे गाँवका फ़कीर पड़ा है, उसे है । पूछनेकी हिम्मत भी न होती थी, पूछू भी जो देना चाहो दे आओ । हम सब अपनी-अपनी किस मुंहसे ? गुजर-बसर कर लेंगे । उसकी इमदाद हमारे आखिर एक रोज़ जी कड़ा करके मैंने रास्तेमें बसकी नहीं।" ___ उनसे साहू साहबसे छात्रवृत्ति लेनेके लिये कह ही आखिर उस फकीरको ही पाटा-वस्त्र देकर दिया। सुनकर शुक्रिया अदा करके मन्दिरजी चले Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527253
Book TitleAnekant 1948 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy