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________________ किरण ३] भिक्षुक मनोवृत्ति ११७ खानेपर तशरीफ आवरीका सबब पूछा तो मालूम आदि बाँटते हुए एक ऐसे गाँवमें गये जहाँ वर्षासे हुआ कि मेरे साथ जो जेलमें एक वालिण्टियर बहुत हानि नहीं हुई थी और बादमें मालूम हुआ कि यह १-२ माह रहे थे, ये उनके भाई हैं। उनकी तन्दुरुस्ती ब्राह्मणोंका गाँव था । वहाँ गाँव वालोंकी सलाहसे ठीक न होनेकी वजहसे वे शिमले जाना चाहते हैं। तय हुआ कि पूरे गाँव भरके लिये कमसे कम एक लिहाजा मुझे उनके पहाड़ी अखसजातके माकूल सप्ताहके भोजनका प्रबन्ध फौरन कर देना चाहिये इन्तजामात कर देने चाहिये। और जबतक स्थिति पूर्व जैसी न होजाय बराबर मैं तो सुनकर सन्न रह गया। पहले तो यही साप्ताहिक सहायता आती रहनी चाहिये। जन-लेखा बड़ी मुश्किलसे समझमें आया कि ये आखिर जिक्र का हिसाब लगाया गया तो ८० मन गेहूं की हत किन साहबका कर रहे हैं। यह जान पहचान ठीक बैठता था। गाड़ी यहाँ आकर अटकी कि ८० मन इसी तरह की थी जैसे कोई कहार देहलीसे डोली गेहूँ दिल्लीसे क्योंकर लाया जाय ? कारके आने-जाने खरीदकर ले जाएँ और लोगोंसे कहें कि पं० नेहरू को ही बमुश्किल नहर विभागसे आज्ञा मिली है। रिश्तेमें साढू होते हैं । और कुरेदकर पूछनेपर इस खतरेमें ट्रक या लॉरी तो किसी हालतमें भी बताएँ कि जिस शहरसे पण्डितजी कमला नेहरूका नहीं आसकती । हम लोगोंको चिन्तामें पडे देख गाँव वाले बोले 'मुझे उसकी इस दीदादिलेरी, बेतकल्लुफ़ी, "दिल्लीसे गेहूँ लानेकी क्या जरूरत है। हमारे यहाँ भीखके टूक और बाजारमें डकार वाली शानपर सबके पास गेहूँ भरा पड़ा है, दाम देकर चाहे ताव तो बहुत आया, मगर घरपर आया जानकर जितना खरीद लो।" बल खाकर रह गया और निहायत आजिजीसे हमारी हैरानीकी हद न रही, हमने कहा-अरे मज़बूरी जाहिर की, न चाहते हुए भी मुफ़लिसीकी भई जब तुम्हारे पास गल्ला भरा पड़ा है तब तुम रेखा खींची। मगर उसको यकीन न आया। "लोग नाहक हमसे लेना चाहते हो? बड़े खुदग़रज़ हैं, खुद गुलछरें उड़ाते हैं, मगर दूसरों वे बोले-"वाह साहब, आप जब इतनी दूर को छटपटाते देखकर भी नहीं सिहरते।" इसी तरहके चलकर देने आये हैं तब हम क्यों न लें, आप भी भाव व्यक्त करते हुए वे चले गये और मैं अपनी अपने मन में क्या कहेंगे कि ब्राह्मण होकर दान लेनेसे इस बेबसीपर नादिम गढ़ा-सा रह गया कि एक वो दुत्कार किया ।" हमने अपनी हँसी और आवेशको हैं जो स्वास्थ्य सुधारने पहाड़ जारहे हैं और एक हम रोककर कहा-“भई हम इस वक्त खैरात करने नहीं है कि दम उखाड़ने वाली खाँसीके लिये मुलैठी-सत आये. अपने भाइयोंकी मदद करने आये हैं। नहीं जुटा पारहे हैं। मुसीबतमें इन्सान ही इन्सानके काम आता है। हम दे रहे हैं इसीसे दाता नहीं और जो ज़रूरतमन्द ले कुछ घटनाए विरोधी भी सुनिये रहे हैं, वह माँगते नहीं। यह तो सब मिलकर १९३३ या ३४ की बात है। जमनामें बाढ़ मुसीबतमें एक दूसरेका हाथ बटा रहे हैं। इसीलिये आजानेसे निकटवर्ती गाँव बड़ी विपदामें आगये थे। गाँवमें जो सचमुच इमदादके योग्य हो उसे बुलादो, उन्हें भोजन, वस्त्र, दवा आदिकी अविलम्ब श्राव- जो हमसे उसकी सहायता बन सकेगी करेंगे।" श्यकता थी । दिल्ली वाले प्राणपणसे सहायता पहुँचा गाँव वालोंने जिस बुढ़ियाका नाम बताया, उसने रहे थे । हमारे इलाकेसे भी हजारों रुपये एकत्र हुए। मिन्नतें करनेपर भी कुछ नहीं लिया। तब वे गाँव हम एक कारमें आवश्यक सामान रखकर नहरके वाले स्वयं ही बोले-आप नाहक परेशान होते हैं । रास्तेमें पड़ने वाले गांवमें गये। वहाँ दवाएँ, वस्त्र इमदाद लेगा तो सारा गाँव लेगा, वर्ना कोई न लेगा। - ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527253
Book TitleAnekant 1948 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size3 MB
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