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किरण ८ ]
कड़वक तककी ७९ लाइनें भी गन्धर्व की हैं । इसे उन्होंने ७९ वीं लाइन में इस तरह स्पष्ट किया है । वाणि पुत्र इड, तं पेक्खवि गंधव्त्रेण कहिउ अर्थात् वासवसेने पूर्व में (ग्रन्थ) रचा था, उस को देखकर ही यह गन्धर्वन कहा' ।
३ चौथा संधिक २२ में कड़बककी 'जज्जरि जेण बहुभेयकम्म' आदि १५ वीं पंक्तिस लेकर आगेकी १७२ लाइनें भी गन्धर्व की हैं। इसके आगे की कुछ लाइनें प्रकरण के अनुसार कुछ परिवर्तित करके लिखी गई हैं । फिर एक घत्ता और १५ लाइनें गन्धर्व की हैं जो ऊपर भावार्थ सहित दे
महाकवि पुष्पदन्त
१ श्रीवासवसेन के इस यशोधरचरितकी प्रति बम्बई के सरस्वतीभवन में ( नं ० ६०४ क) मौजूद है । यह संस्कृतमें है । इस की अन्तिम पुष्पिका में ' इति यशोधरचरिते मुनिवासवसेनकृते काव्ये... अष्टमः सर्गः समाप्तः' वाक्य है। प्रारम्भ में लिखा है 'प्रभंजनादिभिः पूर्वे हरिषेणसमन्वितैः यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेन भाषितुम् ।' इससे मालूम होता है कि उनसे पूर्व प्रभंजन और हरिषेणने यशोधरके चरित लिखे थे । इस कविने अपने समय और कुलादिका कोई परिचय नहीं दिया है । परन्तु इतना तो निश्चित है कि वे गन्धर्व कविसे पहले हुए हैं । इस ग्रन्थकी एक प्रति प्रो० हीरालालजीने जयपुरके बाबा दुलीचन्दजीके भंडार में भी देखी थी और उसके नोट्स लिये थे । हरिषेण शायद वे ही हों, जिनकी धर्मपरीक्षा (अपभ्रंश) अभी डा० उपाध्येने खोज निकाली है ।
२ अपरिवर्तित पाठ मुद्रित ग्रन्थ में न होनेके कारण यहाँ दे दिया जाता है
सो जसंवइ सो कल्लाणमित्तु, सो अभयणाउ सो मारिदत्तु । वणिकुलपं कथबोदणदिणेसु, सो गोवड्ढणु गुणगणविसेंसु ॥ सा. कुसुमावलि पालियति गुत्ति, सा अभयमइत्ति रादिपुत्ति । भव्वइं दुण्णयणिण्णासणेण, तउ चयेवि चारु सण्णासणेण कालें जंन्ते सव्वइमयाई, जिणधम्में सग्गग्गहो गहाई ॥ ३ बम्बई के सरस्वतीभवनमें जो ८०४ क नं० की संस्कृत छायासहित प्रति है उसमें 'जिम्में सग्गग्गहो गद्दाई' के
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इस तरह इस ग्रंथ में सब मिलाकर ३३५ पंक्तियाँ प्रक्षिप्त हैं और वे ऐसी हैं कि जरा गहराई देखने से पुष्पदन्ती प्रौढ और सुन्दर रचनाकं बीच छुप भी नहीं सकतीं । अतएव गन्धर्वकं क्षेपकोंके सहारे पुष्पदन्तको विक्रमकी चौदहवीं शताब्दि में नहीं घसीटा जा सकता ।
इसके सिवाय बहुत थोड़ी ही प्रतियों में सो भी उत्तर भारतकी प्रतियों में यह प्रक्षिप्त अंश मिलता है । बम्बई के तेरहपंथी जैन मन्दिरकी जो वि० सं० १३९० की लिखी हुई अतिशय प्राचीन प्रति है, उसमें गन्धर्वरचित उक्त पंक्तियाँ नहीं हैं, यहाँ के सरस्वती भवन दो पतियों में भी नहीं हैं। उपसंहार
पूर्वोक्त तीनों शंकाओंका समाधान हो जाने के बाद अब हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि
१ पुष्पदन्त. राष्ट्रकूटसम्राट् कृष्णतृतीय और उनके उत्तराधिकारी खोट्टिगदेव के समकालीन थे और श० सं० ८८१ से ८९४ तक उनके मान्यखेट में रहने के प्रमाण मिलते हैं। संभव है, कर्क (द्वि०) के समय में भी वे रहे हों ।
२ उनके आश्रयदाता महामात्य भरत कमसेकम ८०७ तक जीवित थे, जबकि महापुराण समाप्त हुआ ।
३ नागकुमारचरित और यशोधरचरितकी रचना के समय भरतका स्वर्गवास हो चुका था और उनके पुत्र नन गृहमंत्री हो गये थे । यशाधरचरितकी सम्मप्ति मान्यखेट के बरबाद होजानेके बाद हुई जबकि कर्क ( द्वि० ) गद्दीपर होंगे ।
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श्रागे 'गंधव्वे कण्हडणंदणेण श्रादि केवल दो पंक्तियाँ प्रक्षिप्त पाठ की न जाने कैसे श्रा पड़ी हैं। इस प्रतिमें इन दो पंक्तियोंको छोड़ कर और कोई प्रक्षिप्त अंश नहीं है ।