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________________ ४६० अनेकान्त [ वर्ष४ पेसहि तहिं राउलु कउलु अजु(?), जो चाहा था वही सब किया, राउ लु ( राजा और जसहरविवाहु तह जणिय चोज । कौलका प्रसंग), विवाह और भवांतर । फिर जब सयलहं भवभमणभवंतराइं , सामने व्याख्यान किया, सुनाया, तब बीसल साहु महु वंछि उ करहि णिरंतराई ।। सन्तुष्ट हुए । योगिनीपुर (दिल्ली) में साहुके घर अच्छी ता साहुसमीहिउ कियउ सव्वु , तरह सुस्थितिपूर्वक रहते हुए विक्रम राजाक १३६५ राउलु विवाहु भवभमण भव्वु । संवत्में पहले वैशाखके दूसरे पक्षकी तीज रविवारको वक्खाणिउ पुरउ हवेइ जाम, यह कार्य पूरा हुआ।" संतुट्ठल वीसलु साहु ताम । _ "पहले कवि (वच्छगय) ने जिसे वस्तु छन्दबद्ध जोइणिपुग्वरि णिवसंतु सुट्ट , किया था, वही मैंने पद्धड़ीबद्ध रचा।" साहुहि घरे सुत्थियणहु धुट, ॥ ___ "कन्हड़के पुत्र गन्धर्वन स्थिर मनसे भवांतरोंको पणमट्ठिसहिय तेग्हसयाई , कहा है। इसमें कोई मुझे दोष न दे। क्योंकि पूर्वमें णिवविक्कम संवच्छरगया । वच्छगयने यह कहा था। उसीके सूत्रको लेकर मैंने वसाहपहिल्लइ पक्खि बीय, कहा है।" रविवारि समित्थउ मिस्स तीय ।। इसके आगेका घत्ता और प्रशस्ति स्वयं पुष्पदन्त चिरु वत्थुबंधि कइ कियउ जंजि, कृत है जिसमें उन्होंने अपना परिचय दिया है। पद्धडियबंधि मई रइउ तंजि । पूर्वोक्त पद्योंस बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि गंधव्वे कण्हड णंदणेण , गन्धर्व कविने दिल्ली में पानीपत के रहने वाले बीसलअायहं भवाइं कियथिरमणेण । साहु नामक धनीकी प्रेरणासे तीन प्रकरण स्वयं बना महु दोसुण दिज्जइ पुट्विं कइउ, कर पुष्पदन्तके यशोधर चरितमें पीछेस सं० १३६५ कइवच्छराई तं सुत्त लइउ । में शामिल किये हैं और कहाँ कहाँ शामिल किये हैं, इसका भावार्थ यह है सो भी यथास्थान ईमानदारीसे बतला दिया है। "जिसके उपरोध या आग्रहसे कविपतिने यह देखिएपूर्वभवोंका वर्णनकिया(अब मैं) उस भव्यका नाम प्रकट १ पहली सन्धिके चौथे कड़वककी 'चाएणकण्णु करता हूँ। पहले पट्टण' या पानीपतमें छंगे साहु नाम विहवेण इंदु' आदि पंक्तिके बाद आठवें कड़वकर्क के एक साहु थे । उनके खेला साहु नामके गुणी पुत्र ___ अन्त तककी ८१ लाइनें गन्धर्वरचित हैं जिनमें राजा हुए । फिर खेला साहु के बीसलसाहु हुए जिनकी अन्तमें कहा है ___ मारिदत्त और भैरवकुलाचार्यका संलाप है । उनके पत्नीका नाम वीरो था। वे गुणी श्रोता थे। एक दिन क दिन गंधव्वु भणइ मइं कियर एर,णिव जोईसहो संजोय भेउ त उन्होंने अपने चित्तमें सोचा (और कहा) कि हे कण्ह अग्गइ कइरायपुप्फयंतु सरसइणिलउ । . के पुत्र पंडित ठकुर (गन्धर्व) वल्लभराय (कृष्ण तृतीय) देवियहि सरूउ वण्णइ कइयणकुलतिलउ ॥ के परम मित्र और उपकारित कवि पुष्पदन्तने सुन्दर अर्थात् गन्धर्व कहता है कि यह राजा और और शब्दलक्षणविचित्र जो जसहरचरित बनाया __ योगीश (कौलाचार्य) का संयोग-भेद मैंने कहा । है उसमें यदि राजा और कौलका प्रसंग, यशोधरका अब आगे सरस्वतीनिलय कविकुलतिलक कविराज आश्चर्यजनक विवाह और सारे भवांतर और प्रविष्ट पुष्पदन्त ( मैं नहीं) देवीका स्वरूप वर्णन करते हैं। करदो, तो मेरा मन चाहा हो जाय । तब मैंने साहुने २ पहली ही सन्धिके २४ वें कड़वककी ‘णेढ१ 'पट्टण' पर 'पानीपत' टिप्पणी दी हुई है। त्तणि पुट्ठि पलट्ठियंगु' आदि लाइनसे लेकर २७ वें
SR No.527177
Book TitleAnekant 1941 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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