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किरण ८]
महाकवि पुष्पदन्त
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और भी प्रतियों की प्रतिलिपियाँ मिल नेकी संभावना है। जिन भगवान के चरण कमलोंके प्रति हाथ जोड़े हुए एक और शंका
अभिमानमेरु, धूतपंक (धुल गये हैं पाप जिसके ), 'महाकवि पष्पदन्त और उनका महापराण' और परमार्थी पुष्पदन्त कविने भक्तिपूर्वक यह काव्य शीर्षक लेख मैंने भाण्डारकर इन्स्टिटयट' पना बनाया। की वि० सं० १६३० की लिखी हुई जिस प्रतिके यहां वम्बईके सरस्वतीभवनमें जो प्रति (१९३
आधारसे लिखा था, उसमें पशस्तिकी तीन पंक्तियाँ क) है, उसमें भी यही पाठ हे और हमारा विश्वास इस रूपमें हैं
है कि अन्य प्रतियोंमें भी यही पाठ मिलेगा। पप्फयंतकइणा धुयपंकें, जइ अहिमाण मेरुणामंकें। ऐसा मालूम होता है कि पूने वाली प्रतिके अर्द्ध कयउ कब्बु भात्तिए परमत्थें, छसयछड र कयसामत्थें।। दग्ध लेखकको उक्त स्थानमें मिती लिखी देखकर कोहण संवच्छरे आसाढए दहमएदियहे चंदरुइरूढए संवत-संख्या देनेकी जरूरत मालूम हुई होगी और ___ इमक 'छसयछडोत्तर कयसामत्थें' पदका अर्थ उमकी पूर्ति उसने अपनी विलक्षण बुद्धिसे स्वयं कर उस समय यह किया गया था कि यह ग्रंथ शकसंवत डाली होगी। ६०६ में समाप्त हुआ ' । परन्तु पीछे जब गहराईसे
__ यहाँ यह बात नोट करने लायक है कि कविने विचार किया गया तब पता लगा कि ६०६ संवत् का
सिद्धार्थ संवत्मग्में अपना ग्रंथ प्रारंभ किया और नाम क्रोधन हो ही नहीं सकता चाहे वह संबत हो. क्रोधन संवत्सरमें समाप्त । न वहाँ शक संवत दिया विक्रम संवत होगा या कलवित हो। और और न यहाँ । इसके सिवाय पुष्पदन्तके पूर्ववती इमलिए तब उक्त पाठके सही होने में सन्देह होने स्वयंभू ने भी अपने ग्रंथों में सिर्फ मिती ही दी है, लगा। 'छसयछडोत्तर' तो खैर ठीक, पर 'कयामत्थें' संवत् नहीं दिया है। अथे दुरूह बन गया । तृतीयान्त पद होनेके
तीसरी शंका कारण उस कविका विशेषण बनानेके सिवाय और कविके समयके सम्बन्धमें एक शंका 'जसहर काई चाग नहीं था । यदि बिन्दी निकालकर उसे चरिउ' की उस प्रशस्तिके कारण खडी की गई जिस सप्तमी समझ लिया जाय, तो भी 'कृतसासर्ये' का में ग्रन्थ-रचनाका समय वि० सं० १३६५ बतलाया कोई अर्थ नहीं बैठता । अतएव शुद्ध पाठकी खोज गया है। वह प्रशस्तिपाठ यह हैकी जाने लगी। ____सबसे पहले पो० हीरालालजी जैनने अपने
किउ उवरोहें जस्स कइयइ एउ भवंतर ।
तहो भव्वहु णाम पायडमि पयडउ धर ।।२९।। 'महाकवि पुष्पदन्तके समयपर विचार' लेख में बतलाया कि कारंजाकी प्रतिमे उक्त पाठ इस तरह
चिरु पडणे छंगे साहु साहु, दिया हुआ है
तहो सुउ खेला गुणवंतु साहु ।
तहो तगुरुह वीसलुणामसाहु, पुष्फयंत कइणा धुयपंकें, जइ अहिमाणमेरुणामकें।
वीरोसाहुणि त्तिहि सुलहु णाहु ।। क्यउ कन्वु भत्तिए परमत्थे, जिणपयपंकयम उलियहत्थें ।
सोयार सुणणगुणगणसणाहु, कोहणसंवच्छरे आसाढए, दहमइ दिवहे चंदरुइरूढए ।।
एक्कइया चिंतइ चिमि लाहु । अर्थात्, क्रोधन संवत्सरकी असाढ़ सुदी १० को
हो पंडिय ठक्कुर कण्हपुत्त, १ स्व. बाबा दुलीचन्दजीकी ग्रन्थसूचीमें भी पुष्पदन्तका
उवयारियवल्लहपरममित्त ।। समय ६०६ दिया हुआ है।
कइपुप्फयंत - जसहरचरित्त, २ जैनसाहित्य संशोधक भाग २ अंक ३-४ ।
किउ सुट्ट सहलक्खण विचित्त ।
का श्रा