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________________ भरत क्षेत्र की सभ्यता के निम्न सोपान नजर आते हैं संस्कृति का विकास भी इन सोपानों के साथ नजर आता है। तथाकथित अंधयुग की पर्ते केवल जैन पुराण खोल सकते है। संदर्भ नेमिनाथ व कृष्ण काल के स्पष्ट रूप से प्राप्त हैं। इसे यूं समझा जा सकता है कि उस युग में भारत के मध्यांचल, पश्चिमांचल मे वैदिक सभ्यता का प्रभाव बढ़ चुका था । पूर्वांचल व दक्षिणांचल में वैदिक सभ्यता का प्रभाव सीमित था। दक्षिण में द्रविड़ नाग व पूर्व में श्रमण सभ्यता का प्रभाव था। संभवतः विचार भिन्नता के कारण या आबादी के स्थानांतरण के कारण वैदिक ऋचाओं के प्रणयन के साथ वैदिक सभ्यता का उदय सिंधु,सरस्वती घाटी में हुआ। पश्चिमांचल में नाग, द्रविड़ दबाव व पूर्व के श्रमणों से मेलजोल के कारण तथा विदेशी आक्रमणों के दबाव के कारण एक मिश्रित सभ्यता का उदय हुआ जिसे हम भारतीय सम्यता कहते हैं। हड़प्पा प्रकार की जीवन शैली में वे सब बातें थी जो हमारे पुराणकारों ने वर्णित की हैं। जिन्हें श्रमण सभ्यता का आधार कहा जाता है। यह कोई अतिशयोक्ति पूर्ण संदर्भ संकलन नहीं है। इन संकेतों की सृष्टि कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह उन विचारों और परंपरा की अभिव्यक्ति थी जिसने सिंधु जीवन शैली का गठन किया था। यहाँ एक बात स्मरण कर लेना ठीक रहेगा कि सिंधु(हड़प्पा) प्रकार की जीवन शैली केवल सिंधु घाटी में नहीं थी, उसका विस्तार संभवतः सम्पूर्ण भारत में था। इन क्षेत्रों मे उत्खननकर्ताओं ने ऐसी सभावना व्यक्त की है। श्रमण सभ्यता के विस्मृत होते इन सोपानों को सामने रखने पर ही भारत का इतिहास अनावृत हो सकेगा। गत 1000 वर्षों से श्रमण सभ्यता के आध्यात्मिक सोपान बाह्य क्रिया कलापों में उलझ गयेजिसने श्रमण सभ्यता को तथा कथित जैन सभ्यता में बदल दिया जो चरित्र और चितंन से खिसककर बाह्य क्रिया कलापों मे केन्द्रित हो गई। विचारों के इस पड़ाव पर यह स्पष्ट होना चाहिए कि श्रमण सभ्यता किसी राजा महाराज या किसी एक महापुरुष के मार्गदर्शन में आगे नहीं बढ़ी। यह तो कई-कई तीर्थंकरों, कई-कई आचार्यों और श्रावकों की संयुक्त साधना का परिणाम है। कहीं यह पुरुषार्थ के क्षितिज के ऊपर है और कहीं यह भावनाओं की गहराई में हैं। कहीं यह ध्यान में है और कहीं यह मौन में रची बसी है। सब से ऊपर यह सबके अस्तित्व की आवाज है। जहांजहां. जिस-जिसके हृदय में प्रेम-दया-करुणा और क्षमा का वास है वहां-वहां श्रमण सभ्यता है। हो सकता है हम इसे काल रेखा से न जोड़ पायें पर इसका सर्वतोमुखी-सर्वव्यापी अस्तित्व है। यह स्वयं सिद्ध है । भले ही अभी यह नहीं दिखाई दे रही हो पर मानवता का भविष्य यही है । संदर्भ 1.(अ) 'महापरिव्वान - सुत्तन्त' बौद्ध ग्रंथ में उल्लेख है कि वज्जि देश और वैशाली में अर्हत चैत्यों का अस्तित्व था जो बुद्ध पूर्व अर्थात महावीर पूर्वकाल से विद्यमान थे। चौथी शती ईसा पूर्व से हमें जैन मूर्तियों, गुफा, मंदिरों और निर्मित देवालयों या मन्दिरों के अस्तित्व के प्रत्यक्ष प्रमाण मिलने लगते हैं। (ब) मोहन जोदड़ों से प्राप्त मुहर पर उकेरी कायोत्सर्ग मूर्ति पर यदि हम अभी विचार न करें तो भी लोहानीपुर की मौर्ययुगीन तीर्थंकर प्रतिमायें यह सूचित करती हैं कि इस बात की सर्वाधिक संभावना है कि जैन धर्म पूजा हेतु प्रतिमाओं के निर्माण में बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म से आगे था। बौद्ध या ब्राह्मण धर्म से संबंधित देवताओं की इतनी प्राचीन प्रतिमायें अब तक प्राप्त नहीं हुई हैं। - अमलानन्द घोष 'जैन कला एवं स्थापत्य' भाग 1, पृष्ठ 4 प्राप्त : 14.09.11 56 अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
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