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________________ अर्थात् सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं इसलिए प्राणवध को घोर पाप कहकर निर्ग्रन्थ (सर्वज्ञ केवली) इसे वर्जित करते हैं। प्राणवध चाहे एकेन्द्रिय जीव का हो या द्विन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव का, हिंसा ही है और एकेन्द्रिय का घात कम या छोटी हिंसा और द्विन्द्रिय से पंचेन्द्रिय की हिंसा क्रमशः अधिक या बड़ी हो, ऐसा भी नहीं है। यह भी एक भ्रान्ति है कि एकेन्द्रिय जीव को उसके वध पर कम कष्ट होगा और द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को क्रमशः उसी अनुपात में (इन्द्रियों की अधिकता के अनुसार) अधिक कष्ट होगा। जैनागम एवं वैज्ञानिक प्रमाणों के अनुसार जितनी जितनी इन्द्रियाँ कम होगी शेष उपलब्ध इन्द्रियों की क्षमता उसी अनुपात में अधिक होगी जिससे अनुपलब्ध इन्द्रियों के अभाव में अक्षमता या अपूर्णता नहीं रहती उदाहरणार्थ चींटी आदि जीवों की घ्राणेन्द्रिय क्षमता चन्द्रिय से अधिक होती हैं। जैविक विकास क्रम में जैसे-जैसे अवयवों (इन्द्रियों आदि) की संख्या, विभिन्नता बढ़ती गई वैसे-वैसे कार्य का विभाजन बढ़ता गया । एकेन्द्रिय जीव द्वारा जीवन निर्वाह के सभी कार्य कलाप भोजन ग्रहण, पाचन, उर्जा उत्पादन (क्रिया कलापों के लिए), मल निष्कासन, दुःखसुख, अनुकूल अनुभूतियाँ उपलब्ध एक इन्द्रिय द्वारा ही सम्पादित होती हैं जो अधिक इन्द्रियों के जीवों में उपलब्ध क्रमशः अधिक दो से पांच इन्द्रियों द्वारा होती है। वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव पेड़ पौधे भी कटु और मधुर शब्दों से दुखी - सुखी होते हैं, मधुर संगीत से उनकी वृद्धि अच्छी होती है। यदि कोई व्यक्ति उनके पास काटने के अभिप्राय से जावे और कोई पानी देने जावे तो पौधों की क्रमशः दुखी और सुखी अनुभूतियाँ विज्ञान द्वारा प्रमाणित हैं। पौधों की जड़े पोषक तत्वों, जल स्रोतों की पहचान कर, खोज कर उसी दिशा में बढ़ती हैं, संभवतया, उनकी उपलब्ध एक इन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय का भी कार्य कर लेती हैं। हिंसा के सन्दर्भ में एकेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय की हिंसा में कोई भेद नहीं है। जीव मात्र की इकाई कोशिका है जो समानरूप से संवेदनशील है। जीन्स के आधार पर उनके कार्य और कार्य प्रणाली भिन्न होती है। निस्सन्देह शाकाहार मांसाहार से श्रेष्ठ है। शाकाहार स्वास्थ्य के लिए अधिक लाभप्रद है, अधिक पोषक है, प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण को सन्तुलित रखने में भी सहायक है, जबकि मांसाहार सभी प्रकार से हानिकारक है। मांसाहार में मूक पशु-पक्षियों के प्रति उनके पालन, आहार, परिवहन और मारने में अत्यधिक क्रूरता अन्तर्निहित है। इसके साथ ही मांसाहारी शाकाहारी से दस गुना वस्तुतः शाकाहार नष्ट करता है। जिन पशु पक्षियों से मांसाहार प्राप्त होता है वे शाकाहार पर ही निर्भर होते हैं। ये पशु जितना शाकाहार खाते हैं उसकी 10 प्रतिशत उर्जा ही मांस निर्माण में काम आती है शेष उसके हलन चलन, श्वास, पाचन आदि क्रियाओं में व्यय हो जाती है। यदि मांसाहारी सीधा शाकाहार ले तो 10 प्रतिशत में काम चल जावेगा। मांसाहारियों के लिए पशुओं का जितना अन्न खिलाया जाता है, उससे सारे विश्व की खाद्य समस्या हल हो सकती है। मांसाहारियों का यह तर्क निराधार है कि मांसाहार बंद करने से पशुओं की संख्या बढ़ जावेगी । प्राकृतिक अवस्था में संख्या नहीं बढ़ती क्योंकि प्रजनन क्रिया प्रकृति में उपलब्ध आहार के अनुरूप नियोजित रहती है जैसा कि जर्मनी में भेडियों पर किये वैज्ञानिक प्रयोग से सिद्ध हुआ है। व्यापारिक स्तर पर उत्पादन से ही पशु पक्षियों की संख्या बढ़ती है। किन्तु शाकाहार को अहिंसकाहार प्रतिपादित करना तर्क संगत नहीं है। जैनागम में भी सचित्त अर्थात् हरी पत्तियों, कच्चे फल, भूमि खोद कर निकाले कन्द-मूल अभक्ष्य बताए हैं। शाकाहार के नाम पर वनस्पतिकाय के जीवों की निर्मम हिंसा को अपरिहार्य बताने के लिए यह तर्क दिया जाता है कि जल, वायु, पृथ्वी, अग्निकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा सकता उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा से बचना संभव नहीं है। पानी 24 अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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