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पीने, श्वास लेने में जलकायिक एवं वायुकायिक जीवों के साथ अन्य सूक्ष्म त्रस कायिक जीवों का घात होता ही है। यह तर्क भी विज्ञान सम्मत नहीं है। वस्तुत: श्वास प्रक्रिया में वायुकायिक एवं वायु के साथ सूक्ष्म जीवों का घात नहीं होता क्योंकि शरीर के तापक्रम आदि से ये अप्रभावित रहते हैं उसी प्रकार जिस प्रकार शरीर के बाहर त्वचा पर एवं अन्दर आंतों में असंख्य जीव राशि सहजीवी व्यवस्था में निरन्तर रहती है। आंतों में रहने वाले सूक्ष्म जीव यद्यपि वहां से अपना भोजन लेते हैं तो साथ ही पाचन क्रिया में सहायक भी होते हैं। सूक्ष्म जीवों में अनुकूलन की अपरिमित क्षमता है, कई ज्वालामुखी में और कई शीतकटिबंध में जीवित रहते हैं। इसी सहजीवी व्यवस्था को जैन दर्शन के चिरन्तन सिद्धान्त "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" से प्रतिपादित किया है जो पूर्णतया विज्ञान सम्मत है । मधु मक्खी फूलों से शहद निर्माण के लिए रस लेती है और साथ ही परागण में सहायक होती है । जीव जगत में इसके अनेक उदाहरण हैं। इनका विस्तार से वर्णन मेरी पुस्तक द्वय "Pristine Jainism" एवं "Environmental Ethics" में उपलब्ध है। "जैन-दर्शन में जीवो जीवस्य भोजनम्" या "जीवो जीवस्य जीवनम्" की हिंसक अवधारणाओं की स्वीकृति नहीं है।
"अहिंसा परमो धर्मः" जैन धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है। जैनाचार में जीवाणि क्रिया में पानी को कपड़े में छानने के पश्चात् कपड़े को पानी के स्रोत कुएँ, बावड़ी, नदी में पुन: डालकर जो सूक्ष्म जीव कपड़े में रह जाते हैं उन्हें उनके पूर्व पर्यावरण में पहुँचाने का विधान, है ताकि वे सभी जीव अपने उपयुक्त वातावरण में सकुशल रह सकें । विभिन्न सूक्ष्म जीव विभिन्न वातावरण में सुरक्षित रहते हैं। जैन साधु धूप से छांव तथा छाँव से धूप में आने से पूर्व शरीर को पिच्छी से बुहारते हैं ताकि छाँव के जीव धूप में आने पर और धूप के जीव छाँव में आने पर अपने अनुकूल वातावरण में ही रहें। पारिस्थितिकी विज्ञान के इस सिद्धान्त के ऐसे उदाहरण अन्य किसी आचार संहिता में नहीं मिलते। जैन धर्म के नियम पर्णरूपेण अहिंसा के लिए समर्पित हैं। जैन साधुओं एवं श्रावकों को मन, वचन और शरीर की प्रत्येक क्रिया सावधानीपूर्वक अहिंसक रूप से करने का विधान है । गमन करते समय इस प्रकार चले कि मानों खोये बहुमूल्य मोती को ढूंढ रहे हैं। किसी भी वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखते समय घसीटा नहीं जावे, वरन् सावधानी पूर्वक उठाकर दूसरी जगह को भली प्रकार देखकर रखें ताकि किसी जीव का हनन न हो। गौतम गणधर ने भगवान महावीर से पूछा:
कहँ चरे? कहं चिठे? कहमासे? कहं सए?
कहँ भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ?' अर्थात् किस प्रकार चलें, ठहरें, खाएँ, बोलें, सोएं ताकि पापकर्म का बंध न हो। भगवान ने बताया :
जयं चरे, जयं चिठे, जयमासे, जयं सए।
जयं भुंजंतो, भासंतो पावं कम्मं न बंधई। अर्थात् यत्नपूर्वक चलें, ठहरें, खाएँ, बोलें, सोएं, इससे पापकर्म का बंध नहीं होगा। भगवान ने प्रमाद को पाप का सबसे प्रमुख कारण कहा है। जैन वाङ्गमय में हीनाधिक हिंसक और अहिंसक मनोवृत्तियों और प्रवृत्तियों का विवेचन षट् लेश्याओं के आधार पर बहुत ही सहज, सरल और स्पष्ट रूप से किया गया है। निर्मम अत्यधिक हिंसक को काले रंग कृष्ण लेश्या से अभिव्यक्त किया गया है। क्रमश: कम हिंसक को नील (कबूतर का रंग), पीत (पीला), पद्म से और पूर्ण अहिंसक मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति को शुक्ल लेश्या युक्त बताया है। इसे विभिन्न मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों को वृक्ष से फल अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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