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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष 19 अंक 3 जुलाई सितम्बर 2007, 23-32 " " शाकाहार बनाम अहिंसकाहार ■ सूरजमल जैन* · सारांश वर्तमान में मूलतया कृषि से उपलब्ध शाकाहार को अहिंसकाहार नहीं माना जा सकता। कृषि कार्य में जुताई, बुवाई, सिंचाई, कटाई तक अनन्त पृथ्वीकायिक, जलकायिक एवं सकाविक जीवों की हिंसा होती है। रासायनिक उर्वरकों से भूमि एवं जल स्रोत्रों के असंख्य जीव मरते हैं, साथ ही भूमि एवं जलस्रोत प्रदूषित होते हैं। कृषि में बढ़ता हुआ कीटनाशकों का प्रयोग स्पष्टरूपेण संकल्पी हिंसा है क्योंकि 'कृषक कीड़े मरे' यह संकल्प करके कीटनाशकों का उपयोग करता है। जैनदर्शन में कृत, कारित, अनुमोदन से कीटनाशकों, रासायनिक उर्वरकों के कारण इस संकल्पी हिंसा का पाप कृषकों के साथ उपभोक्ता श्रावकों एवं मुनियों को भी लगता है। कीटनाशकों से भूमि, जल, वायु प्रदूषण बढ़ रहा है और ये खाद्य, पेय पदार्थो के साथ मानव शरीर में जाकर भयंकर कैंसर जैसे रोग उत्पन्न कर रहे हैं। निस्सन्देह शाकाहार मांसाहार से श्रेष्ठ है, अधिक पोषक है, स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, किन्तु अहिंसकाहार नहीं है। यदि हम चाहें तो हिंसा जनित शाकाहार का विकल्प अहिंसकाहार वर्तमान में संभव है। मेरा प्रोजेक्ट "वनों से भोजन" भारत सरकार के प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विभाग से स्वीकृत हुआ था जिस पर स्नेह शर्मा ने शोध करके पी-एच. डी. की है। उपलब्ध समय एवं धनराशि में बीस वन वृक्षों के बीजों का विश्लेषण करके उनमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज रेशे की मात्रा का आकलन किया गया है । यह पाया गया कि वृक्षों से प्राप्त बीज हमारे अधिकांश खाद्यान्नों से अधिक पौष्टिक है। खाद्य बीजों के अलावा वृक्षों से खाद्य फल, फूल, पत्र, औषधियां, अनेक रसायन, वस्त्रों के लिए रेशे, आवास के लिए लकड़ी मिलेगी और वे सभी वस्तुऐं जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। खाद्य बीज देने वाले वृक्ष यदि कृषि भूमि में लगा दिए जावे तो प्रतिवर्ष प्रति हेक्टार लगभग दो टन बीच उपलब्ध होगें जबकि कृषि का औसत उत्पादन 1.25 टन प्रति हेक्टार प्रतिवर्ष है। वन एक बार लगाने पर चिरन्तर प्राकृतरूप से बने रहे हैं । स्वतः नये पौधे पनपते रहते हैं यदि वनों का वैज्ञानिक प्रबन्धन किया जावे । वृक्ष मात्र एक बार ही लगाने होंगे। इसके बाद किसी प्रकार के गड्डे खोदने, पौधे लगाने, सिंचाई, उर्वरक एवं कीटनाशकों की आवश्यकता नहीं होगी, और किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होगी। कृषि की भांति प्रति फसल बार-बार जुलाई, बुबाई, सिंचाई आदि पर धन व्यय नहीं करना पड़ेगा। मेरे प्रोजेक्ट का संक्षिप्त मेरी पुस्तक "Environmental Ethics" में उपलब्ध है । Jain Education International * * सव्वे जीवा वि इच्छंति जीवितं ण मरिउं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वयंति णं ॥ ' * बी-7, तलवण्डी, प्राइवेट सेक्टर, कामर्स कॉलेज मेन रोड़, कोटा - 324005 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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