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________________ निर्मल मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मन:पर्ययज्ञान के धारक परम तपस्वी धर्माचार्यो, मुनियों ने अविच्छिन्न रूप से जान लिया। इस प्रकार जैन मतानुसार आयुर्वेद का आदि स्रोत आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं जिनकी दिव्य ध्वनि साक्षात् सरस्वती रूप में अवतरित होकर गणधरों द्वारा ग्रहण की गई। तत्पश्चात् एक लम्बी परम्परा उपलब्ध होती है जिसके माध्यम से विभिन्न विद्याओं विषयों के साथ साथ आयुर्वेद का ज्ञान भी सुरक्षित रखा गया जैन धर्म के चौबीस तीर्थकरों को यह ज्ञान अविच्छिन्न और यथावत् रूप में प्राप्त हुआ। इसका मूल कारण यह रहा कि सभी तीर्थकर 'केवल ज्ञान' प्राप्त करने के कारण सर्वज्ञ थे और उनका समस्त विषयों का ज्ञान सम्पूर्ण, अव्याहत एवं अविच्छिन्न था । अतः आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के मुख से प्रसूत वाग्देवी का स्वरूप अखण्डित एवं अविकृत रहना स्वाभाविक ही है। यहां पर एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जिस प्रकार आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की वाणी विकीर्ण हुई और उसे "दिव्य ध्वनि" की संज्ञा दी गई उसी प्रकार अन्य तेइस तीर्थंकरों की वाणी भी विकीर्ण हुई और वह 'दिव्य ध्वनि' कहलाई । संसार का ऐसा कोई विषय अवशिष्ट नहीं रहा जो उस दिव्यध्वनि में समाविष्ट नहीं हुआ हो। प्रत्येक तीर्थकर की दिव्यध्वनि पूर्व की भांति तत्कालीन गणधरों द्वारा धारण की गई। तत्पश्चात् श्रुत केवली द्वारा उसका उपदेश दिया गया जो अपेक्षाकृत अल्पांग ज्ञानी मुनियों द्वारा सुना गया और तत्पश्चात् उनके द्वारा तद् विषयक विभिन्न शास्त्रों ग्रंथों की रचना की गई। वर्तमान में धार्मिक ग्रंथों के रूप में आचार शास्त्र के रूप में, नीतिशास्त्र, गणित शास्त्र ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण आदि के रूप में तथा प्रथमानुयोग, करणानुयोग द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग के रूप में तथा इन चारों अनुयोगों के अन्तर्गत समाविष्ट समस्त ग्रंथों के रूप में जो भी वाङ्मय या साहित्य समुपलब्ध है वह सब जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर की देशना (दिव्य ध्वनि) से सम्बद्ध है। तीर्थकर महावीर की दिव्यध्वनि को धारण करने वाले उनके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति ने भगवान की देशना को धारण कर उसे द्वादसांग और चतुर्दश पूर्व के रूप में प्रतिपादित किया था। द्वादशांग रूप वह सम्पूर्ण वाङ्मय द्वादशांग श्रुत कहलाता है और उस द्वादशांग श्रुत के पारगामी श्रुतकेवली कहलाते हैं। " श्रुत केवली द्वारा उपविष्ट अन्यान्य विषयों में आयुर्वेद भी समाविष्ट है अतः जिन वीतरागी मुनिजनों ने अन्य विषयों का उपदेश श्रुत केवली से ग्रहण किया उन्होंने अन्य विषयों के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान ग्रहण किया। उनमें से कुछ मुनिप्रवर ऐसे हुए जिन्होंने अन्य विषयों के साथ साथ आयुर्वेद विषय को भी अधिकृत कर स्वतन्त्र ग्रंथ रचना की। इनमें से बहुत थोड़े से ग्रंथों का उल्लेख या जानकारी मिल पाई है। आयुर्वेद शास्त्र की परम्परा का उल्लेख श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ कल्याण कारक में इस प्रकार किया है - "जिस प्रकार अन्य तीर्थकरों (आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव के पश्चात् अन्य अजितनाथ आदि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों ) द्वारा प्रतिपादित सिद्ध मार्ग से चला आया वह आयुर्वेद शास्त्र अत्यन्त विस्तृत दोष रहित तथा गंभीर अर्थ से युक्त है यह सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र तीर्थंकरों के मुखकमल से अपने आप उत्पन्न होने से स्वयम्भू और अनादि काल से निरन्तर चला आने के कारण सनातन है यह आयुर्वेद गोवर्धन भद्रबाहु आदि श्रुत केवलियों द्वारा उपविष्ट होने के कारण अन्य वीतरागी श्रुताभ्यासी मुनिजनों द्वारा साक्षात् रूप से सुना गया।"" श्रुत ज्ञान की परम्परा से यह स्पष्ट हुआ है कि वर्तमान में जो भी श्रुत या अर्हतु वचन, 15 (4). 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 43 www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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