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चक्रवर्ती आदि नरेशों ने त्रिकरण शुद्धि पूर्वक त्रिलोकीनाथ को नमन कर निम्न प्रकार से पूछा -
"हे भगवन्! प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में जब यहां भोग भूमि की व्यवस्था थी, लोक परस्पर एक दूसरे को स्नेह की दृष्टि से देखते थे और कल्पवृक्षों से उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाया करते थे, मनुष्य भव में आयु पर्यन्त उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सुख भोग कर बे पुण्यात्मा भोग भूमिज जीव मृत्यु के बाद इष्ट सुख प्रदायक स्वर्ग को प्राप्त होते थे। इस क्षेत्र को भोग भूमि का रूप पलट कर कर्मभूमि का रूप मिला। फिर भी उपवाद शैया में उत्पन्न होने वाले देवगण, चरम व उत्तम शरीर को प्राप्त करने वाले पुण्यात्मा, अपने पुण्य प्रभाव से शस्त्रादि से घात होने योग्य शरीर को धारण करने वाले भी बहुत से मनुष्य उत्पन्न लगे हैं उन्हें (त्रिदोष) वात पित्त कफ के प्रकोप से महाभय उत्पन्न होने लगता है। ""
विष,
आगे वे पूछते हैं:
"हे प्रभो! इस कर्मभूमि में शीत अतिताप और वर्षा से पीडित कालक्रम से मिथ्या आहार विहार के सेवन में तत्पर तथा व्याकुल बुद्धि वाले आपकी शरणागत हम लोगों के लिए आप ही शरण हैं अर्थात् रक्षा करने वाले हैं। हे त्रिलोकी नाथ! अनेक प्रकार के रोगों के भय से अत्यन्त दुखी और आहार औषधि के क्रम को नहीं जानने वाले हम रोगियों के स्वास्थ्य की रक्षा का विधान और उपाय क्या है ? वह बतलाने की कृपा करें। "2
होने
भगवान आदिनाथ ( ऋषभदेव) के समवशरण में पहुंच कर भरत चक्रवर्ती आदि जनों ने करबद्ध रूप से उपर्युक्त प्रकार से निवेदन किया और मनुष्यों को पीड़ित करने वाले रोगों के शमन का उपाय पूछा। भगवान सर्वज्ञ थे, केवलज्ञानी थे, त्रिलोकदर्शी और त्रिकालदर्शी थे। जगत् के कल्याण हेतु उनके मुख से साक्षात् वाग्देवी रूप दिव्य ध्वनि में आयुर्वेद का वह सम्पूर्ण स्वरूप भी विद्यमान था जिसमें मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा के साथ रोगों के शमन का उपाय भी प्रतिपादित था समवशरण में बैठे हुए वृषभसेन आदि गणधरों ने उस दिव्य ध्वनि को ग्रहण किया और तत्पश्चात् धृति, स्मृति आदि के वैभव से सम्पन्न मनीषी आचार्यों ने विभिन्न विद्याओं को ज्ञान रूप में प्राप्त कर उसे अपने बुद्धि वैशिष्ट्य के द्वारा विभिन्न शास्त्रों में निबद्ध किया । इस प्रकार मनुष्यों में आयुर्वेद सहित समस्त लौकिक विद्याओं के ज्ञान का प्रसार हुआ।
भगवान की दिव्य ध्वनि का प्रस्फुट भाव तथा तदन्तर्गत वस्तु चतुष्टय का निरूपण करते हुए श्री उग्रादित्यचार्य ने लिखा है :
"सम्पूर्ण जगत के हित के लिए गणधर प्रमुख वृषभसेन, भरत चक्रवर्ती आदि प्रधान पुरुष भगवान आदिनाथ से करबद्ध निवेदन कर अपने अपने स्थान पर मौन होकर बैठ गए। तब उस समवसरण में साक्षात् पटरानी के रूप में रहने वाली सरस वाणी दिव्य ध्वनि से युक्त प्रसारित हुई। वह दिव्य ध्वनि इस प्रकार चार भाग में विभक्त करती हुई इन वस्तु चतुष्ट्य के लक्षण, भेदप्रभेद सहित सम्पूर्ण विषयों का संक्षिप्त रूप से कथन करने लगी जिसने भगवान की सर्वज्ञता को सूचित किया । "3
आयुर्वेद शास्त्र का अध्ययन करने से ज्ञात होता है, कि वह कितना विशाल और सुव्यवस्थित शास्त्र है। भगवान् ऋषभदेव के मुखकमल से जब वह दिव्य ध्वनि के रूप में उद्भासित हुआ तब यद्यपि वहां उपस्थित समस्त प्राणियों ने उसे यथावत् रूप से स्वविवेक के अनुसार जान लिया, तथापि, अविकल रूप से उसका ग्रहण साक्षात् गणधर परमेष्ठी ने किया उन गणधरों द्वारा उस आयुर्वेद का कथन यथावत् रूप से किया गया जिसे
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अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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