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________________ वर्ष - 15, अंक - 4, 2003, 41 - 48 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर प्राणावाय पूर्व का उद्भव, विकास एवं परम्परा - आचार्य राजकुमार जैन* सारांश प्राणावाय पूर्व में विवेचित विषय को ही वर्तमान में आयर्वेद संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत आलेख में इस ज्ञान के मूल स्रोत, जैनाचार्यों द्वारा इस ज्ञान के आधार पर रचित प्रामाणिक ग्रन्थों की विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। सम्पादक जैनागम में द्वादशांग के अन्तर्गत बारहवें दृष्टिवादांग के चतुर्दश पूर्व में "प्राणावाय पर्व' का प्रतिपादन किया गया है। इसे वर्तमान में आयुर्वेद के नाम से जाना जाता है। जैन सिद्धांत के अनुसार विश्व की समस्त विद्याओं और कलाओं की उत्पत्ति आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से मानी गई है। समस्त विद्याओं - कलाओं ज्ञान - विज्ञान के वे ही आद्य उपदेष्टा हैं तथा विभिन्न विद्याओं के प्रवर्तक हैं। भगवान ऋषभदेव के पहले सर्वत्र भोग भूमि थी जिसमें कल्प वृक्षों का बाहुल्य था। लोगों के सभी मनोरथ उन कल्पवृक्षों से पूर्ण हो जाते थे। अत: उन्हें न तो किसी आधि - व्याधि की चिंता थी और न ही अपनी आजीविका के लिए किसी वृत्ति या व्यवसाय की चिन्ता थी। काल प्रभाव वश शनै: शनै कल्पवृक्षों का ह्रास हो गया और भोग - भूमि का स्थान कर्म भूमि ने ले लिया। परिणाम स्वरूप उदर पूर्ति के लिए लोगों को श्रम का आश्रय लेना पड़ा जिससे समाज में श्रम को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई और उसके परिणाम स्वरूप अन्यान्य वृत्तियों का आविर्भाव एवं प्रचलन समाज में हुआ। उन वृत्तियों का अनुसरण या पालन करने के लिए उनसे सम्बन्धित विद्याओं एवं कलाओं का ज्ञान आवश्यक था। श्री ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में इस परिवर्तन का अनुभव किया और उन्होंने ही सर्वप्रथम सामाजिक व्यवस्था के लिए लोगों को प्रेरित किया। इस प्रकार एक व्यवस्था का प्रारंभ हुआ। लोक में शिक्षा एवं विद्या का प्रसार करने के उद्देश्य से उन्होंने सर्वप्रथम अपनी दो पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को क्रमश: लिपि विद्या अर्थात् वर्णमाला तथा अंक विद्या अर्थात् संख्या लिखना सिखाया। इस प्रकार इस युग में ऋषभदेव ने अपनी पुत्रियों के माध्यम से सर्वप्रथम शिक्षा का सूत्रपात कराकर वाङ्मय का उपदेश दिया और वाङ्मय शिक्षा के तीनों अंगों - व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र एवं अलंकार शास्त्र की रचना की। पुत्रियों की भांति पुत्रों को भी विभिन्न विद्याओं की शिक्षा देकर उन्हें निपुण बनाया। विभिन्न विद्याओं - कलाओं में अर्थशास्त्र, गन्धर्व शास्त्र, काम शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, अश्वविद्या, गज विद्या, रत्न परीक्षा, ज्योतिष, शकुन विद्या, मंत्र ज्ञान, द्यूत विद्या, स्थापत्य कला आदि प्रमुख हैं। कालान्तर में इन्हीं विद्याओं का विकास एवं विस्तार जगत् में हुआ। आयुर्वेद की उत्पत्ति एवं प्रसार के सम्बन्ध में श्री उग्रादित्याचार्य ने जो वर्णन अपने ग्रंथ 'कल्याणकारक' में किया है, तदनुसार अशोक वृक्ष, सुरपुष्प वृष्टि, दिव्य ध्वनि, छत्र, चमर, रत्नमय सिंहासन, भामण्डल और देव दुन्दुर्भि इन अष्ट महा प्रातिहार्य तथा द्वादश विध समाओं से वेष्ठित आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के समवशरण में पहुंच कर भरत * जैनायुर्वेद अनुसंधान एवं चिकित्सा केन्द्र, राजीव काम्प्लेक्स गली, इटारसी-461111 (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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