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________________ आगम उपलब्ध है यह अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु द्वारा भणित है। वस्तुतः भगवान् जिनेन्द्र देव जो कुछ जानते हैं वह अनन्त होता है, जो कुछ कहते है वह उसका अनन्तवां भाग जिनवाणी होता है। इसके पश्चात् जो गणधर उसे ग्रहण करते हैं वह उसका भी अनन्तवां भाग होता है, गणधरों से जो प्रति गणधर उनसे जो श्रुत केवली और उनसे जो वीतरागी मुनि उनसे अन्य आचार्य आदि क्रमशः अनन्तवां भाग ग्रहण करते हैं। वस्तुतः श्रुत केवलियों तक अंगश्रुत अपने मूल रूप में आया। उसके पश्चात् बुद्धिबल और धारणा शक्ति के उत्तरोत्तर क्षीण होते जाने से तथा बहुआयामी उस ज्ञान को ग्रंथ या पुस्तकाकार रूप में किए जाने की परम्परा नहीं होने से वह ज्ञान क्रमशः शनैः शनैः क्षीण होता चला गया। अन्य विद्याओं की भांति आयुर्वेद शास्त्र भी लोकहितार्थ तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अतः यह भी धर्मशास्त्र आदि की भांति जिनागम है। जिनागम की अनवरत परम्परा के अनुसार तीर्थकरों से गणधरों ने गणधरों से प्रति गणधरों ने प्रतिगणधरों से श्रुत केवलियों ने, श्रुतकेवलियों से वीतरागी मुनियों ने वीतरागी मुनियों से अन्य आचार्यों आदि ने आयुर्वेद का ज्ञान उपदेश रूप से ग्रहण कर आद्यन्त जान लिया और तत्पश्चात् लोकहित की भावना से प्रेरित होकर उसे लिपिबद्ध कर ग्रंथ रूप प्रदान किया जिससे शास्त्र या ग्रंथ रूप में कुछ अंशों में ही वह सुरक्षित रह पाया आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ, जिनका उल्लेख विभिन्न आचार्यों ने किया है, काल कवलित होने से लुप्त प्रायः हो गए हैं। श्री उग्रादित्याचार्य मुनि ने अपने ग्रंथ "कल्याणकारक" में ऐसे अनेक मुनियों- आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनके आधार पर उन्होंने अपने ग्रंथ 'कल्याणकारक' की रचना की। इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उन्होंने कल्याणकारक में स्पष्टता पूर्वक इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि 'आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर किसी ग्रंथ की रचना की थी जिसमें विस्तारपूर्वक विषय का विवेचन था । अष्टांग संग्रह नामक ग्रंथ का अनुसरण करते हुए मैंने संक्षेप में इस कल्याणकारक ग्रंथ की रचना की है।" श्री उग्रादित्य के इस उल्लेख से यह असंदिग्ध रूप से प्रमाणित होता है कि उनके काल में श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा विरचित अष्टांग वैद्यक विषयक कोई महत्वपूर्ण ग्रंथ अवश्य ही विद्यमान एवं उपलब्ध रहा होगा। इसी प्रकार ज्ञान गाम्भीर्य और प्रखर पाण्डित्य धारी श्री पूज्यपाद स्वामी का आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृत्व असंदिग्ध है। यद्यपि उनके द्वारा लिखित आयुर्वेदाधारित कोई ग्रंथ या रचना वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, अतः कुछ विद्वान उनका आयुर्वेद ग्रंथ कर्तृत्व संदिग्ध मानते हैं किन्तु ऐसे अनेक उद्धरण और प्रमाण उपलब्ध हैं जो उनके द्वारा आयुर्वेद के ग्रंथ की रचना किए जाने की पुष्टि करते हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रंथ " ज्ञानार्णव' में देवनन्दी (पूज्यपाद) को निम्न प्रकार से नमस्कार किया है : अपाकुर्वन्ति यद्वाच: कायवाक् चित्तसम्भवम् । कलंकमग्निनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ जिनके वचन प्राणियों के काय, वाक् (वाणी) और चित्त ( मन ) में उत्पन्न दोषों को दूर कर देते हैं उन देवनन्दी को नमस्कार है। इसमें देवनन्दी (पूज्यपाद) के तीन ग्रंथों का उल्लेख सन्निहित है काय (शरीर ) के दोषों को दूर करने वाला वैद्यक शास्त्र, वाग्दोषों ( वाणी या वचन के दोषों) को दूर करने वाला व्याकरण ग्रंथ (जैनेन्द्र व्याकरण) और चित्त (मन) के दोषों को दूर करने वाला 44 अर्हत् वचन, 15 (4), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.526560
Book TitleArhat Vachan 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size11 MB
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