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अश्वमेधदत्त और अधिसीमकृष्ण गद्दी पर बैठे। अधिसीम के समय अयोध्या में दिवाकर, मगध में सेनजीत एवम् विदेह में जनक उग्रसेन राज्य करते थे और पंजाब में प्रवाहण जैबलि का प्रभाव था। नागों के दबाव व प्राकृतिक विपदाओं से त्रस्त होकर कुरूवंशी राजा अधिसीम के बेटे निचक्ष के राज्य काल में देश का परित्याग कर वत्स देश की कोशांबी नगरी में जा बसे। यह घटना लगभग ई.पू. 9 वीं, 10 वीं शताब्दी की है। तक्षशिला के व पाताल पुरी के नाग अन्य कोई नहीं वरन् सिंधु घाटी क्षेत्र व नर्मदा घाटी क्षेत्र में जल विप्लव व महामारियों के प्रकोप के कारण सुरक्षित स्थानों पर विस्थापित होने के लिए बाध्य हो गये लोग थे। ऋग्वेद की ऋचाओं के कर्त्ता व वैदिक संस्कृति से जुड़ने वाले लोग भी प्राकृतिक प्रकोप व परिस्थितियों से जूझते वे भारतीय थे जो संभवत: नागवंशियों से असहमत होकर पंचनद क्षेत्र में फैल गये।
प्राय: इसी समय विदेह के 'जनकों की राज्य सत्ता का अन्त हो गया और वहाँ संघ राज्य स्थापित हो गया। उसी के पड़ोस में लिच्छिवियों का संघ राज्य विकसित हो रहा था। विदेह के संघ राज्य व लिच्छिवियों के संघ राज्य के आपस में विलय के पश्चात् वृजि या वज्जिगण की स्थापना हुई। ये लोग श्रमणोपासक व्रात्य क्षत्रिय थे।
काशी में भी उरग, उग्र या नागवंशी व्रात्य क्षत्रियों का राज्य स्थापित था। इस समय काशी राज्य की बड़ी सत्ता थी। कोसल और अश्मक राज्य भी काशी के अधीन थे। काशी नरेश ब्रह्मदत्त जैन परम्परा के थे। इस तथ्य को डॉ. रायचौधरी आदि विद्वानों ने सही माना है। उसका उल्लेख अथर्ववेद तथा बौद्ध साहित्य में भी आता है। इसी वंश में तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ।
यहाँ हम नागवंश की शक्ति का प्रसार पाते हैं। तक्षशिला, पातालपुरी व सिन्धु क्षेत्र से लेकर नर्मदा घाटी, काशी, मगध तक नागजाति का प्रभुत्व आका जा सकता है। शिशुनाग उसकी ज्ञात महत्वपूर्ण कड़ी थी जिसे सब इतिहासकारों ने स्वीकार किया है।
8 वीं शती ई.पू. में मगध में राज्य विप्लव हुआ और मगधवालों ने शिशुनाग को राजा होने के लिए आमंत्रित किया। वह काशी का राज्य अपने पुत्रों को देकर मगध का राजा बना। इस घटना ने मगध व काशी के सम्बन्धों को नया आधार दिया। वैदिक नाग और श्रमण नागों का 8 वीं शती ईसा पूर्व में समस्त उत्तर भारत में प्रभाव नजर आता है।
नागवंश या उरग वंश भारत के उन प्रसिद्ध वंशों में है जिसका अस्तित्व ऋषभदेव की शासन व्यवस्था के परिणाम स्वरूप आया। ऋषभदेव द्वारा अधिष्ठित चार महामाण्डलिक राजाओं में एक काश्यप था जो ऋषभदेव से मघवा नाम पाकर उग्रवंश/ उरगवंश का मुख्य राजा हुआ। मघवा हिन्दू पुराणों के अनुसार एक इन्द्र हैं और सातवें द्वापर के व्यास थे।
नागवंश का एक जैन संदर्भ और महत्वपूर्ण है। आचार्य जिनसेनकृत आदिपुराण' में निम्नप्रकार विवरण है।
कच्छ महाकच्छ के पुत्रों नमि विनमि ने जब भगवान ऋषभदेव के सम्मुख मांग रखी कि - 'हे स्वामिन' आपने अपना साम्राज्य अपने पुत्रों और पौत्रों को बांट दिया, आपने हम दोनों को भूला ही दिया। हम भी तो आपके ही हैं। अब हमें भी कुछ दीजिए। ध्यानस्थ भगवान के तप के प्रभाव से धरणेन्द्र (भवन वासी देवों की जाति के नागकुमार इन्द्र) का आसन कम्पित हुआ। उसने अवधि ज्ञान से सब बातें जान ली। कुमारों के भक्तिपूर्ण वचन सुनकर धरणेन्द्र अत्यंत संतुष्ट हुआ और अपना परिचय देकर बोला "मैं भगवान का साधारण सेवक हूँ। आप लोगों की इच्छा पूर्ण करने के लिए यहाँ आया हूँ।"
फिर धरणेन्द्र उन्हें विजयाध पर्वत पर ले गया। रथूनपुर: चक्रवाल नामक नगर में प्रवेश किया। फिर धरणेन्द्र ने विद्याधरों को बुलाकर कहा 'जगदगुरू भगवान ऋषभदेव ने इन कुमारों को म्यहाँ भेजा
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अर्हत् वचन, 15 (4), 2003
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